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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 143

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 2
    सूक्त - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३

    यु॒वं श्रिय॑मश्विना दे॒वता॒ तां दिवो॑ नपाता वनथः॒ शची॑भिः। यु॒वोर्वपु॑र॒भि पृक्षः॑ सचन्ते॒ वह॑न्ति॒ यत्क॑कु॒हासो॒ रथे॑ वाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । श्रिय॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । दे॒वता॑ । ताम् । दिव॑:। न॒पा॒ता॒ । व॒न॒थ॒: । शची॑भि: ॥ यु॒वो: । वपु॑: । अ॒भि । पृक्ष॑: । स॒च॒न्ते॒ ।‍ वह॑न्ति । यत् । क॒कु॒हास॑: । रथे॑ । वा॒म् ॥१४३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं श्रियमश्विना देवता तां दिवो नपाता वनथः शचीभिः। युवोर्वपुरभि पृक्षः सचन्ते वहन्ति यत्ककुहासो रथे वाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । श्रियम् । अश्विना । देवता । ताम् । दिव:। नपाता । वनथ: । शचीभि: ॥ युवो: । वपु: । अभि । पृक्ष: । सचन्ते ।‍ वहन्ति । यत् । ककुहास: । रथे । वाम् ॥१४३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (दिवः) हे व्यवहार के (नपाता) न गिरानेवाले (अश्विना) दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (देवता) दिव्य गुणवाले (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) बुद्धियों से (ताम्) उस (श्रियम्) लक्ष्मी का (वनुथः) सेवन करते हो, (यत्) जिस [लक्ष्मी] के लिये (पृक्षः) अनेक अन्न (युवोः) तुम दोनों के (वपुः) शरीर को (अभि) सब ओर से (सचन्ते) सींचते हैं और [जिसके लिये] (ककुहासः) बड़े विद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों को (रथे) रमणीय रथ में (वहन्ति) ले चलते हैं ॥२॥

    भावार्थ - विद्वान् लोग विज्ञान द्वारा यान-विमान आदि बनाकर राज्य की सम्पत्ति बढ़ावें और अन्न आदि प्राप्त करके राजा और प्रजा को सुखी करें ॥२॥

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