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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः। अ॑नानुकृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात्सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒माऽइ॑व । प॒र्णा । मु॒षि॒ता । वना॑नि । बृह॒स्पति॑ना । अ॒कृ॒प॒य॒त् । व॒ल: । गा: ॥ अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्यम् । अ॒पु॒नरिति॑ । च॒का॒र॒ । यात् । सूर्या॒मासा॑ । मि॒थ: । उ॒त्ऽचरा॑त: ॥१६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गाः। अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिमाऽइव । पर्णा । मुषिता । वनानि । बृहस्पतिना । अकृपयत् । वल: । गा: ॥ अननुऽकृत्यम् । अपुनरिति । चकार । यात् । सूर्यामासा । मिथ: । उत्ऽचरात: ॥१६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (हिमा इव) जैसे हिम [महाशीत] से (मुषिता) उजाड़े गये (पर्णा) पत्तों की (वनानि) वृक्ष, [वैसे ही] (बृहस्पतिना) बृहस्पति [महाविद्वान्] के कारण से (वलः) हिंसक दुष्ट ने (गाः) वेदवाणियों को (अकृपयत्) माना। (अननुकृत्यम्) दूसरों से न करने योग्य, (अपुनः) सबसे बढ़कर कर्म (चकार) उस [महाविद्वान्] ने किया है, (यात्) जैसे (सूर्यामासा) सूर्य और चन्द्रमा (मिथः) आपस में (उच्चरातः) उत्तमता से चलते हैं ॥१०॥

    भावार्थ - जैसे जाड़े के मारे वृक्ष सूख जाते हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष वेदवाणी के प्रभाव से दुष्टों को मारकर अनुपम कर्म करता हुआ सूर्य और चन्द्रमा के समान सन्मार्ग पर चलता रहे ॥१०॥

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