Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    आ॑प्रुषा॒यन्मधु॑ना ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः। बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् ।अ॒र्क: । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्यौ: ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑न: । गा: । भूम्या॑: । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥१६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप्रुषायन्मधुना ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽप्रुषायन् । मधुना । ऋतस्य । योनिम् । अवऽक्षिपन् ।अर्क: । उल्काम्ऽइव । द्यौ: ॥ बृहस्पति: । उद्धरन् । अश्मन: । गा: । भूम्या: । उद्नाऽइव । वि । त्वचम् । बिभेद ॥१६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (मधुना) ज्ञान के साथ (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) घर [वेद] को (आप्रुषायन्) सब प्रकार सींचते हुए और (द्योः) आकाश से (उल्काम् इव) उल्का [गिरते हुए चमकते तारे] के समान (अवक्षिपन्) फैलाते हुए और (उद्धरन्) ऊँचे धरते हुए, (अर्कः) पूजनीय (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्या के रक्षक महाविद्वान्] ने (अश्मनः) व्यापक [परमात्मा] की (गाः) वाणियों को (वि बिभेद) फैलाया है, (उद्ना इव) जैसे जल से (भूम्याः) भूमि की (त्वचम्) त्वचा को [फैलाते हैं] ॥४॥

    भावार्थ - महाविद्वान् पुरुष विचार के साथ वेदविद्या को बढ़ावे और आकाश से गिरते चमकते तारे के समान प्रकाशमान करे और उच्चभाव के साथ उसे विविध प्रकार फैलावे, जैसे पृथिवी जल से फैलकर उपकारी होती है ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top