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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑। प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्वर्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वय॑: । न । वृ॒क्षम् । सु॒ऽप॒ला॒शम् । आ । अ॒स॒द॒न् । सोमा॑स: । इन्द्र॑म् । म॒न्दिन॑: । च॒मू॒ऽसद॑: ॥ प्र । ए॒षा॒म् । अनी॑कम् । शव॑सा । दवि॑द्युतत् । वि॒दत् । स्व॑: । मन॑वे । ज्योति॑: । आर्यम् ॥१७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः। प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्वर्मनवे ज्योतिरार्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वय: । न । वृक्षम् । सुऽपलाशम् । आ । असदन् । सोमास: । इन्द्रम् । मन्दिन: । चमूऽसद: ॥ प्र । एषाम् । अनीकम् । शवसा । दविद्युतत् । विदत् । स्व: । मनवे । ज्योति: । आर्यम् ॥१७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (वयः न) जैसे पक्षी गण (सुपलाशम्) सुन्दर पत्तोंवाले (वृक्षम्) वृक्ष को, [वैसे ही] (मन्दिनः) आनन्द देनेवाले, (चमूषदः) सेनाओं में ठहरनेवाले (सोमासः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] को (आ असदन्) आकर प्राप्त हुए हैं। (शवसा) बल के साथ (एषाम्) इन [ऐश्वर्यवानों] के (दविद्युतत्) अत्यन्त चमकते हुए (अनीकम्) सेनादल ने (मनवे) मनुष्य के लिये (आर्यम्) उत्तम (स्वः) सुख और (ज्योतिः) तेज को (प्र) अच्छे प्रकार (विदत्) पाया है ॥४॥

    भावार्थ - जैसे सुन्दर फल, पुष्प और छायावाले वृक्ष पर पक्षी आकर रहते हैं, वैसे ही तीक्ष्ण हथियारवाले धीर-वीर लोग महाप्रतापी राजा का आश्रय लेकर प्रजा को सुख देते और प्रकाश का मार्ग खोलते हैं ॥४

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