अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
आ हर॑यः ससृज्रि॒रेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑। यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । हर॑य: । स॒सृ॒जि॒रे॒ । अरु॑षी: । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । यत्र॑ । अ॒भि । स॒म्ऽनवा॑महे ॥२२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हरयः ससृज्रिरेऽरुषीरधि बर्हिषि। यत्राभि संनवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हरय: । ससृजिरे । अरुषी: । अधि । बर्हिषि । यत्र । अभि । सम्ऽनवामहे ॥२२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
विषय - राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्य (अरुषीः) गतिशील [उद्योगी] प्रजाओं को (बर्हिषि) बढ़ती के स्थान में (अधि) अधिकारपूर्वक (आ ससृज्रिरे) लाये हैं, (यत्र) जहाँ पर [तुझ राजा को] (अभि) सब ओर से (संनवामहे) हम मिलकर सराहते हैं ॥॥
भावार्थ - जिस राजा की सुनीति से विद्या द्वारा उन्नति होवे, प्रजा सहित विद्वान् जन उसके गुणों का गान करें ॥॥
टिप्पणी -
−(हरयः) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। दुःखहर्तारो विद्वांसः (आ ससृज्रिरे) सृज विसर्गे-लिट्, रुडागमः। आ ससृजिरे। आनीतवन्तः (अरुषीः) अ० २०।१७।९। ऋ गतौ-उषच्, ङीप्। गतिशीलाः। उद्योगिनीः प्रजाः (अधि) अधिकारपूर्वकम् (बर्हिषि) बृह वृद्धौ-इसुन्। वृद्धिस्थाने (यत्र) यस्मिन् स्थाने (अभि) सर्वतः (संनवामहे) णु स्तुतौ। राजानं वयं मिलित्वा स्तुमः ॥