Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 30

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३०

    दि॒वि न के॒तुरधि॑ धायि हर्य॒तो वि॒व्यच॒द्वज्रो॒ हरि॑तो॒ न रंह्या॑। तु॒दद॒हिं हरि॑शिप्रो॒ य आ॑य॒सः स॒हस्र॑शोका अभवद्धरिम्भ॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि । न । के॒तु: । अधि॑ । धा॒यि॒ । ह॒र्य॒त: । वि॒व्यच॑त् । वज्र॑: । हरि॑त: । न । रंह्या॑ ॥ तु॒दत् । अहि॑म् । हरि॑ऽशिप्र: । य: । आ॒य॒स: । स॒हस्र॑ऽशोका: । अ॒भ॒व॒त् । ह॒रि॒म्ऽभ॒र: ॥३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि न केतुरधि धायि हर्यतो विव्यचद्वज्रो हरितो न रंह्या। तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्रशोका अभवद्धरिम्भरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि । न । केतु: । अधि । धायि । हर्यत: । विव्यचत् । वज्र: । हरित: । न । रंह्या ॥ तुदत् । अहिम् । हरिऽशिप्र: । य: । आयस: । सहस्रऽशोका: । अभवत् । हरिम्ऽभर: ॥३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (न) जैसे (हर्यतः) रमणीक (केतुः) प्रकाश (दिवि) आकाश में (अधि) ऊपर (धायि) रक्खा गया है, (वज्रः) वह वज्रधारी (रंह्या) वेग के साथ (हरितः न) सिंह के समान (विव्यचत्) व्याप गया, और (आयसः) लोहे के बने हुए [अति दृढ़], (हरिशिप्रः) सिंह के समान मुखवाले (यः) जिसने (अहिम्) सर्प [समान शत्रु] को (तुदत्) छेदा है, वह (सहस्रशोकाः) सहस्रों प्रकाशवाला होकर (हरिंभरः) मनुष्यों का पालनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥४॥

    भावार्थ - तेजस्वी न्यायकारी राजा दुष्ट पापियों को शीघ्र दण्ड देकर अनेक प्रकार से प्रजा का पालन करे ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top