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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अह॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । पुन॑: । ग॒र्भ॒ऽत्वम् । आ॒ऽई॒रि॒रे ॥ दधा॑ना: । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥४०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। दधाना नाम यज्ञियम् ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । अह । स्वधाम् । अनु । पुन: । गर्भऽत्वम् । आऽईरिरे ॥ दधाना: । नाम । यज्ञियम् ॥४०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
विषय - राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(आत्) फिर (अह) अवश्य (स्वधाम् अनु) अपनी धारण शक्ति के पीछे (यज्ञियम्) सत्कारयोग्य (नाम) नाम [यश] को (दधानाः) धारण करते हुए लोगों ने (पुनः) निश्चय करके (गर्भत्वम्) गर्भपन [सारपन, बड़े पद] को (एरिरे) सब प्रकार से पाया है ॥३॥
भावार्थ - जहाँ पर पूर्वोक्त प्रकार से न्याययुक्त स्वतन्त्रता के साथ लोग कार्य करते हैं, वहाँ पर सब पुरुष बड़ाई पात हैं ॥३॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।६।४; सामवेद उ०२।२।७ और आगे है-अथ०२०।६९।१२॥३−(आत्) अनन्तरम् (अह) विनिग्रहे-निघ०१।१२। अवश्यम् (स्वधाम्) स्वधारणशक्तिम् (अनु) अनुसृत्य (पुनः) अवधारणे (गर्भत्वम्) अ०३।१०।१२। अर्त्तिगॄभ्यां भन्। उ०३।१२। गॄ शब्दे, विज्ञापने, स्तुतौ निगरणे च-भन्। गर्भो गृभेर्गृणात्यर्थे गिरत्यनर्थानिति वा-निरु०१०।२३। गृणातिरर्चतिकर्मा-निघ०३।१४। गर्भभावम्। स्तुत्यं पदम् (एरिरे) आ+ईर गतौ-लिटो झस्य इरेच्। समन्तात् प्राप्तवन्तः (दधानाः) धारयन्तः पुरुषाः (नाम) यशः। कीर्तिम् (यज्ञियम्) यज्ञार्हम्। पूजनीयम् ॥