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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४४

    यस्मि॑न्नु॒क्थानि॒ रण्य॑न्ति॒ विश्वा॑नि च श्रवस्या। अ॒पामवो॒ न स॑मु॒द्रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । उ॒क्था॑नि । रण्य॑न्ति । विश्वा॑नि । च॒ । श्र॒व॒स्या॑ ॥ अ॒पाम् । अव॑ । न । स॒मु॒द्रे ॥४४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्नुक्थानि रण्यन्ति विश्वानि च श्रवस्या। अपामवो न समुद्रे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । उक्थानि । रण्यन्ति । विश्वानि । च । श्रवस्या ॥ अपाम् । अव । न । समुद्रे ॥४४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 44; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (विश्वानि) सब (उक्थानि) कहने योग्य वचन (च) और (श्रवस्या) धन के लिये हितकारी कर्म (रण्यन्ति) पहुँचते हैं, (न) जैसे (समुद्रे) समुद्र में (अपाम्) जलों की (अवः) गति [पहुँचती हैं] ॥२॥

    भावार्थ - जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पराक्रमी राजा के पास पहुँचकर अपना गुण प्रकाशित करके सुख पावें ॥२, ३॥

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