अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 12
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे। नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒ना । मृग: । न । वा॒र॒ण: । पु॒रु॒ऽत्रा । च॒रथ॑म् । द॒धे॒ ॥ नकि॑: । त्वा॒ । नि । य॒म॒त् । आ । सु॒ते । ग॒म॒: । म॒हान् । च॒र॒सि॒ । ओज॑सा ॥५७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
दाना मृगो न वारणः पुरुत्रा चरथं दधे। नकिष्ट्वा नि यमदा सुते गमो महांश्चरस्योजसा ॥
स्वर रहित पद पाठदाना । मृग: । न । वारण: । पुरुऽत्रा । चरथम् । दधे ॥ नकि: । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गम: । महान् । चरसि । ओजसा ॥५७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 12
विषय - ११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ -
(न) जैसे (मृगः) जंगली (वारणः) हाथी (दाना) मद के कारण (पुरुत्रा) बहुत प्रकार से (चरथम्) झपट (दधे) लगाता है। [वैसे ही] (नकि) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नि यमत्) रोक सकता, (सुते) तत्त्वरस को (आ गमः) तू प्राप्त हो, (महान्) महान् होकर तू (ओजसा) बल के साथ (चरसि) विचरता है ॥१२॥
भावार्थ - जैसे वन का मदमत्त हाथी सब ओर बे-रोक घूमकर उपद्रव मचाता है, वैसे ही नीतिज्ञ सेनापति तत्त्व विचारकर शत्रुओं को शीघ्र दबावे ॥१२॥
टिप्पणी -
११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥