Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 61

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६१

    येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ। म॑न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । ज्योतीं॑षि । आ॒यवे॑ । मन॑वे । च॒ । वि॒वेदि॑थ ॥ म॒न्दा॒न: । अ॒स्य । ब॒र्हिष॑: । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥६१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन ज्योतींष्यायवे मनवे च विवेदिथ। मन्दानो अस्य बर्हिषो वि राजसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । ज्योतींषि । आयवे । मनवे । च । विवेदिथ ॥ मन्दान: । अस्य । बर्हिष: । वि । राजसि ॥६१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (येन) जिस [यज्ञ] के द्वारा (आयवे) गतिशील [उद्योगी] (च) और (मनवे) मननशील मनुष्य के लिये (ज्योतींषि) ज्योतियों को (विवेदिथ) तूने प्राप्त कराया है, (मन्दानः) आनन्द करता हुआ तू (अस्य) उस (बर्हिषः) बढ़े हुए यज्ञ [संसार] का (वि) विशेष करके (राजसि) राजा है ॥२॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने संसार के बीच, सूर्य, अग्नि, बिजुली, वायु आदि रचकर पुरुषार्थी विचारवान् पुरुष के लिये ऐश्वर्य पाने के अनन्त साधन दिये हैं, वही परमेश्वर सब सृष्टि का स्वामी है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top