अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
44
येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ। म॑न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । ज्योतीं॑षि । आ॒यवे॑ । मन॑वे । च॒ । वि॒वेदि॑थ ॥ म॒न्दा॒न: । अ॒स्य । ब॒र्हिष॑: । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥६१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन ज्योतींष्यायवे मनवे च विवेदिथ। मन्दानो अस्य बर्हिषो वि राजसि ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । ज्योतींषि । आयवे । मनवे । च । विवेदिथ ॥ मन्दान: । अस्य । बर्हिष: । वि । राजसि ॥६१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (येन) जिस [यज्ञ] के द्वारा (आयवे) गतिशील [उद्योगी] (च) और (मनवे) मननशील मनुष्य के लिये (ज्योतींषि) ज्योतियों को (विवेदिथ) तूने प्राप्त कराया है, (मन्दानः) आनन्द करता हुआ तू (अस्य) उस (बर्हिषः) बढ़े हुए यज्ञ [संसार] का (वि) विशेष करके (राजसि) राजा है ॥२॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने संसार के बीच, सूर्य, अग्नि, बिजुली, वायु आदि रचकर पुरुषार्थी विचारवान् पुरुष के लिये ऐश्वर्य पाने के अनन्त साधन दिये हैं, वही परमेश्वर सब सृष्टि का स्वामी है ॥२॥
टिप्पणी
२−(येन) बर्हिषा। यज्ञेन (ज्योतींषि) सूर्याग्निविद्युद्वाय्वादीन् (आयवे) छन्दसीणः उ० १।२। इण् गतौ-उण्। गतिशीलाय (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (च) (विवेदिथ) विद्लृ लाभे-लिट्। प्रापितवानसि (मन्दानः) अ० २०।९।१। आमोदयिता (अस्य) प्रसिद्धस्य (बर्हिषः) प्रवृद्धस्य यज्ञस्य (वि) विशेषेण (राजसि) ईशिषे ॥
विषय
आयवे-मनवे
पदार्थ
१. हे प्रभो! (येन) = जिस सोमपान-जनित मद से आप (आयवे) = गतिशील व्यक्ति के लिए (च) = और (मनवे) - विचारशील व्यक्ति के लिए (ज्योतीषि) = ज्योतियों को (विवेदिथ) = प्राप्त कराते हैं, (अस्य) = इस (बर्हिषः) = वृद्धि के कारणभूत सोम का (विराजसि) = विशेष रूप से दीपन करते हैं। इस सोम के दीपन से ही (मन्दान:) = आप इन जीवों को आनन्दित करते हैं। २. सोम-रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम आयु' बनें, 'मनु' बनें। उत्तम कर्मों में लगे रहना और स्वाध्यायशील होना ही हमें सोम-रक्षण के योग्य बनाता है। यह रक्षित सोम ही सब वृद्धियों का कारण बनता है। यही जीवन में आनन्द का भी हेतु होता है।
भावार्थ
हम गतिशील व विचारशील बनकर सोम का रक्षण करें। यह सुरक्षित सोम वृद्धि व आनन्द का कारण बनेगा।
भाषार्थ
(येन) जिस प्रसन्नता के कारण आप, (आयवे) प्रगतिशील, (च) और (मनवे) श्रवण-मनन-निदिध्यासन करनेवाले उपासक के लिए, (ज्योतींषि) विवेकज ज्ञानरूपी ज्योतियाँ (विवेदिथ) प्रकट करते हैं, वे आप (मन्दानः) प्रसन्न होकर, (अस्य) इस उपासक के (बर्हिषः) हृदयाकाश में (वि राजसि) विराजमान होते हैं।
टिप्पणी
[ज्योतींषि=“सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च” (योग ३.४९); तथा “तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्य आनन्त्यात् ज्ञेयमल्पम्” (योग ४.३१)।]
विषय
पूर्णानन्द परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
(येन) जिस तृप्तिकारक सबको प्रसन्न करने वाले प्रकाश से तू (आयवे) साधारण मनुष्य और (मनने) ज्ञानशील पुरुष को (ज्योतीषि) नाना ज्योतिर्मय सूर्य, विद्युत्, अग्नि आदि (विवेदिथ) प्रदान करता है उससे ही तू (मन्दानः) सदा तृप्त एवं पूर्ण आनन्दमय होकर (अस्य बर्हिषः) इस महान् ब्रह्माण्ड के बीच में आसन पर राजा के समान (विराजसि) शोभायमान होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोसूक्तयश्वसूक्तिनावृषी। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। षडृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
We celebrate and adore that power and divine joy of yours by which you reveal the light of life to the mortals from generation to generation and, exalted by which, you shine and rule over the yajnic dynamics of this universe.
Translation
You, O Lord, wherewith give lights to man and leraned man and always blessed with your blessedness you shine in the heart of all.
Translation
You, O Lord, wherewith give lights to man and learned man and always blessed with your blessedness you shine in the heart of ail.
Translation
By which (i.e., above-mentioned Energy) Thou revealeth all sources of light (i.e,, the Sun, the moon, electricity, etc., to the living beings and the learned persons. Revelling Thyself Thou shinest forth in this vast universe.
Footnote
Griffith’s reference to special personalities by Ayu and Manu is incorrect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(येन) बर्हिषा। यज्ञेन (ज्योतींषि) सूर्याग्निविद्युद्वाय्वादीन् (आयवे) छन्दसीणः उ० १।२। इण् गतौ-उण्। गतिशीलाय (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (च) (विवेदिथ) विद्लृ लाभे-लिट्। प्रापितवानसि (मन्दानः) अ० २०।९।१। आमोदयिता (अस्य) प्रसिद्धस्य (बर्हिषः) प्रवृद्धस्य यज्ञस्य (वि) विशेषेण (राजसि) ईशिषे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে পরমেশ্বর !] (যেন) যে [যজ্ঞ] দ্বারা (আয়বে) গতিশীল [উদ্যোগী] (চ) এবং (মনবে) মননশীল মনুষ্যের জন্য (জ্যোতীংষি) জ্যোতিসমূহ (বিবেদিথ) আপনি প্রাপ্ত করিয়েছেন, (মন্দানঃ) আনন্দিত আপনি (অস্য) সেই প্রসিদ্ধ (বর্হিষঃ) প্রবৃদ্ধ যজ্ঞের [সংসারের] (বি) বিশেষ (রাজসি) রাজা/স্বামী ॥২॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা সংসারে সূর্য, অগ্নি, বিদ্যুৎ, বায়ু আদি রচনা করে পুরুষার্থী বিচারশীল পুরুষের জন্য ঐশ্বর্য প্রাপ্তির অনন্ত সাধন প্রদান করেছেন, সেই পরমেশ্বরই সকল সৃষ্টির স্বামী॥২॥
भाषार्थ
(যেন) যে প্রসন্নতার কারণে আপনি, (আয়বে) প্রগতিশীল, (চ) এবং (মনবে) শ্রবণ-মনন-নিদিধ্যাসনকারী উপাসকের জন্য, (জ্যোতীংষি) বিবেকজ জ্ঞানরূপী জ্যোতি (বিবেদিথ) প্রকট করেন, সেই আপনি (মন্দানঃ) প্রসন্ন হয়ে, (অস্য) এই উপাসকের (বর্হিষঃ) হৃদয়াকাশে (বি রাজসি) বিরাজমান হন ।
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