अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 61/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
47
स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे। इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या च॒ यन्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठस: । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एक॑: । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ ॥ इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥६१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे। इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठस: । राजसि । पुरुऽस्तुत । एक: । वृत्राणि । जिघ्नसे ॥ इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥६१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये हुए (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सः) सो (एकः) अकेला तू (जैत्रा) जीतनेवालों के योग्य धनों (च) और (श्रवस्या) यश के लिये हितकारी कर्मों को (यन्तवे) नियम में रखने के लिये, (राजसि) राज्य करता है और (वृत्राणि) रोकनेवाले विघ्नों को (जिघ्नसे) मिटाता है ॥६॥
भावार्थ
अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥, ६॥
टिप्पणी
६−(सः) तादृशस्त्वम् (राजसि) ईशिषे (पुरुष्टुत) बहुष्टुत (एकः) अद्वितीयः (वृत्राणि) आवरकान्। विघ्नान् (जिघ्नसे) हंसि। नाशयसि (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (जैत्रा) जेतृ-अण्। जेतॄणां योग्यानि धनानि (श्रवस्या) अ० २०।१२।१। यशसे हितानि कर्माणि (च) (यन्तवे) यन्तुं नियन्तु वशीकर्तुम् ॥
विषय
जैत्र बल-श्रवणीय ज्ञान
पदार्थ
१. हे (पुरुष्टुत) = बहुत-से मनुष्यों से स्तुत प्रभो! स: वे आप राजसि-सारे ब्रह्माण्ड के शासक हैं। (एक:) = बिना किसी अन्य की सहायता के अकेले ही (वृत्राणि जिघ्नसे) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करते हैं। २. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिए (जैत्रा) = विजय के साधनभूत बलों को (च) = और (श्रवस्या) = श्रवणीय ज्ञानों को (यन्तवे) = देने के लिए होते हैं।
भावार्थ
हम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हमारे लिए जैत्र बल व श्रवणीय ज्ञान को प्राप्त कराते हैं। प्रभु-स्तवन के द्वारा 'जैत्र बल' व 'श्रवणीय ज्ञान' को प्राप्त करके अपना उत्तम भरण करनेवाला 'सौभरि' अगले सूक्त में १-४ मन्त्रों का ऋषि है। ५-७ तक ऋषि 'नृमेध'-मनुष्यों के सम्पर्क में चलनेवाला-सबके साथ उन्नति की कामनावाला है तथा ८-१० का ऋषि "गोषूक्ती व अश्वसूक्ती' हैं-ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का उत्तम प्रयोग करनेवाले। 'सौभरि' प्रार्थना करता है -
भाषार्थ
(पुरुष्टुत) हे बहुतों के द्वारा स्तुत, या प्रभूत स्तुतियोंवाले (इन्द्र) परमेश्वर! (सः) वे आप (एकः) अकेले ही (राजसि) संसार पर राज्य कर रहे हैं। और अकेले ही (वृत्राणि) बुद्धि और आत्मा पर आवरण डालनेवाले पापों का (जिघ्नसे) पूर्णतया हनन करते हैं। हे परमेश्वर! आप ही (जैत्रा) विजयशील और (श्रवस्या) प्रसिद्ध शक्तियों का (यन्तवे) नियन्त्रण करने के लिए उन पर राज्य कर रहे हैं।
विषय
पूर्णानन्द परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
(द्विबर्हसः) दो महान् शक्तियों वाले (यस्य) जिसका (बृहत् सहः) बड़ा भारी बल (वृषत्वना) अपने वर्षण सामर्थ्य से (रोदसी) द्यौ और पृथिवी (गिरीन् अज्रान्) वेगवान् मेघों और पर्वतों को (अपः स्वः) जलों समुद्र और आकाश को भी (दाधार) धारण करता है। (सः) वह तू (पुरुष्टुतः) बहुतसी प्रजाओं द्वारा स्तुति करने योग्य (एकः) अकेला ही (वृत्राणि) समस्त विघ्नों को (जिघ्नसे) विनाश करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! तू ही (जैत्रा श्रवस्या) विजयशील यश-कीर्त्ति जनक ऐश्वर्यों को (यन्तवे) प्रदान करने में समर्थ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोसूक्तयश्वसूक्तिनावृषी। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। षडृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, universally praised and celebrated, you rule and shine alone, one, unique, without an equal, to destroy darkness, ignorance and adversities, to control and contain what is won and to manage what is heard and what ought to be heard.
Translation
Such a one alone are you, O Almighty Lord, you praised by many shine and smite the clouds causing drought and are able to give the winnig power and fame.
Translation
Such a one alone are you, O Almighty Lord, you praised by many shine and smite the clouds causing drought and are able to give the wining power and fame.
Translation
O Mighty Lord, much invoked, Thou, all alone shinest forth over all the creation and destroyed all the forces of evil and ignorance and controllest all fortunes of victory and high renown.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(सः) तादृशस्त्वम् (राजसि) ईशिषे (पुरुष्टुत) बहुष्टुत (एकः) अद्वितीयः (वृत्राणि) आवरकान्। विघ्नान् (जिघ्नसे) हंसि। नाशयसि (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (जैत्रा) जेतृ-अण्। जेतॄणां योग्यानि धनानि (श्रवस्या) अ० २०।१२।१। यशसे हितानि कर्माणि (च) (यन्तवे) यन्तुं नियन्तु वशीकर्तुम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(পুরুষ্টুত) হে বহুস্তুত্য (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যশালী পরমাত্মন্] (সঃ) সেই (একঃ) একাকী আপনি (জৈত্রা) বিজয় প্রাপ্তকারীর যোগ্য ধন (চ) এবং (শ্রবস্যা) যশের জন্য হিতকারী কর্মকে (যন্তবে) নিয়মপূর্বক রাখার জন্য, (রাজসি) রাজ্য করেন এবং (বৃত্রাণি) বাধা প্রদানকারী বিঘ্ন সমূহকে (জিঘ্নসে) দূর করেন ॥৬॥
भावार्थ
একাকী মহাবিদ্বান্ এবং মহাপুরুষার্থী পরমাত্মা সকলকে পরস্পর ধারণ-আকর্ষণ দ্বারা নিয়ন্ত্রণ করে নিজের বিশ্বাসী ভক্তদের তাঁদের পুরুষার্থ অনুসারে ধন ও কীর্তি প্রদান করেন ॥৫, ৬॥
भाषार्थ
(পুরুষ্টুত) হে অনেকের দ্বারা স্তুত, বা প্রভূত স্তুতিসম্পন্ন (ইন্দ্র) পরমেশ্বর! (সঃ) সেই আপনি (একঃ) একাই (রাজসি) সংসারে রাজ্য করছেন। এবং একাই (বৃত্রাণি) বুদ্ধি এবং আত্মার ওপর আবরণকারী পাপ-সমূহের (জিঘ্নসে) পূর্ণরূপে হনন করেন। হে পরমেশ্বর! আপনিই (জৈত্রা) বিজয়শীল এবং (শ্রবস্যা) প্রসিদ্ধ শক্তি-সমূহ (যন্তবে) নিয়ন্ত্রণ করার জন্য সেগুলোর ওপর রাজ্য করছেন।
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