अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६१
50
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी। गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्वर्वृषत्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑स: । बृ॒हत् । सह॑: । दा॒धार॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । गि॒रीन् । अज्रा॑न् । अ॒प: । स्व॑: । वृ॒ष॒ऽत्व॒ना ॥६१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य द्विबर्हसो बृहत्सहो दाधार रोदसी। गिरीँरज्राँ अपः स्वर्वृषत्वना ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । द्विऽबर्हस: । बृहत् । सह: । दाधार । रोदसी इति । गिरीन् । अज्रान् । अप: । स्व: । वृषऽत्वना ॥६१.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(द्विबर्हसः) दोनों विद्या और पुरुषार्थ में बढ़े हुए (यस्य) जिस [परमात्मा] के (बृहत्) बड़े (सहः) सामर्थ्य ने (रोदसी) सूर्य और भूमि, (अज्रान्) शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों, (अपः) जलों [समुद्र आदि] और (स्वः) प्रकाश को (वृषत्वना) बल के साथ (दाधार) धारण किया है ॥॥
भावार्थ
अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥, ६॥
टिप्पणी
−(यस्य) परमात्मनः (द्विबर्हसः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। द्वि+बर्ह प्राधान्ये-असि। द्वयोर्विद्यापुरुषार्थयोः परिवृद्धस्य (बृहत्) महत् (सहः) सामर्थ्यम् (दाधार) धारितवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरीन्) मेघान् (अज्रान्) स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। अज गतिक्षेपणयोः-रक्, वीभावाभावः। क्षिप्रान्-निघ० २।१। शीघ्रगमनान् (अपः) जलानि समुद्रादीनि (स्वः) प्रकाशम् (वृषत्वना) वृषत्वेन। वीर्येण ॥॥
विषय
सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान्-सर्वाधार
पदार्थ
१. (यस्य) = जिस (द्विबर्हस:) = ज्ञान व शक्ति-दोनों दृष्टिकोणों से बढ़े हुए प्रभु का (बृहत् सहः) = महान् बल रोदसी दाधार-द्यावापृथिवी का धारण करता है, वे प्रभु ही वृषत्वना-अपने वीर्य व सामर्थ्य से गिरीन्-पर्वतों को, अजान्-खेतों को, अपः-जलों को तथा स्व:-प्रकाश को धारण करते हैं। २. वस्तुतः प्रभु ही सबका धारण करनेवाले हैं। सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् होने से वे प्रभु सब लोक-लोकान्तरों व भूतों का ठीक से धारण कर रहे हैं। प्रभु का उपासक भी ज्ञान व शक्ति को बढ़ाता हुआ अपने जीवन में मस्तिष्क व शरीर दोनों को सुन्दरता से धारित करता है।
भावार्थ
वे सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने सामर्थ्य से सारे ब्रह्माण्ड का धारण कर रहे हैं |
भाषार्थ
(द्विबर्हसः) दोनों प्रकार से बढ़ानेवाले, अर्थात् अभ्युदय और निःश्रेयस की दृष्टि से बढ़ानेवाले (यस्य) जिस परमेश्वर के (बृहत् सहः) महाबल ने (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (दाधार) धारण किया हुआ है, और जिसने (वृषत्वना) अपनी प्रबलशक्ति या वर्षाशक्ति द्वारा (अज्रान्) चलते (गिरीन्) मेघों, (अपः) समुद्रीय तथा अन्तरिक्षीय जलों और (स्वः) सुख को धारण किया है—[अगले मन्त्र के साथ अन्वय।]
विषय
पूर्णानन्द परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
(द्विबर्हसः) दो महान् शक्तियों वाले (यस्य) जिसका (बृहत् सहः) बड़ा भारी बल (वृषत्वना) अपने वर्षण सामर्थ्य से (रोदसी) द्यौ और पृथिवी (गिरीन् अज्रान्) वेगवान् मेघों और पर्वतों को (अपः स्वः) जलों समुद्र और आकाश को भी (दाधार) धारण करता है। (सः) वह तू (पुरुष्टुतः) बहुतसी प्रजाओं द्वारा स्तुति करने योग्य (एकः) अकेला ही (वृत्राणि) समस्त विघ्नों को (जिघ्नसे) विनाश करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! तू ही (जैत्रा श्रवस्या) विजयशील यश-कीर्त्ति जनक ऐश्वर्यों को (यन्तवे) प्रदान करने में समर्थ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोसूक्तयश्वसूक्तिनावृषी। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। षडृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Glorify Indra, who sustains the cosmic yajna in the two worlds, your life here and hereafter, whose cosmic potential sustains heaven, earth and the middle regions, who moves and controls the mighty gusts of winds and motions of mountainous clouds, and who gives us heavenly showers of rain for joy and vital energies.
Translation
He is that who holds two-fold powers (the creative and: destructive), whose mighty energy supports the heaven and earth, moving clouds, raining waters and the firmament.
Translation
He is that who holds two-fold powers (the creative and destructive), whose mighty energy supports the heaven and earth, moving clouds, raining waters and the firmament.
Translation
Whose (i.e,, Indra, spoken of above) Great might, having Two strong energies, upholds the heavens and the earth, fast-moving clouds, mountains, waters and the sky by His Powers of showering or attraction,
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(यस्य) परमात्मनः (द्विबर्हसः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। द्वि+बर्ह प्राधान्ये-असि। द्वयोर्विद्यापुरुषार्थयोः परिवृद्धस्य (बृहत्) महत् (सहः) सामर्थ्यम् (दाधार) धारितवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरीन्) मेघान् (अज्रान्) स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। अज गतिक्षेपणयोः-रक्, वीभावाभावः। क्षिप्रान्-निघ० २।१। शीघ्रगमनान् (अपः) जलानि समुद्रादीनि (स्वः) प्रकाशम् (वृषत्वना) वृषत्वेन। वीर्येण ॥॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(দ্বিবর্হসঃ) উভয় বিদ্যা ও পুরুষার্থে পরিবর্ধিত (যস্য) যার [পরমাত্মার] (বৃহৎ) বৃহৎ (সহঃ) সামর্থ্য (রোদসী) সূর্য এবং ভূমি, (অজ্রান্) শীঘ্রগামী (গিরীন্) মেঘ, (অপঃ) জল [সমুদ্র আদি] ও (স্বঃ) প্রকাশকে (বৃষত্বনা) বলের সহিত (দাধার) ধারণ করে রয়েছে॥৫॥
भावार्थ
একাকী মহাবিদ্বান্ এবং মহাপুরুষার্থী পরমাত্মা সকলকে পরস্পর ধারণ-আকর্ষণ দ্বারা নিয়ন্ত্রণ করে নিজের বিশ্বাসী ভক্তদের তাঁদের পুরুষার্থ অনুসারে ধন ও কীর্তি প্রদান করেন ॥৫, ৬॥
भाषार्थ
(দ্বিবর্হসঃ) উভয় প্রকারে বর্ধিতকারী, অর্থাৎ অভ্যুদয় এবং নিঃশ্রেয়স-এর দৃষ্টিতে বর্ধিতকারী (যস্য) যে পরমেশ্বরের (বৃহৎ সহঃ) মহাবল (রোদসী) দ্যুলোক এবং ভূলোককে (দাধার) ধারণ করে আছে, এবং যিনি (বৃষত্বনা) নিজের প্রবলশক্তি বা বর্ষাশক্তি দ্বারা (অজ্রান্) শীঘ্রগামী (গিরীন্) মেঘ, (অপঃ) সমুদ্রস্থ তথা অন্তরিক্ষস্থ জল এবং (স্বঃ) সুখ ধারণ করে রয়েছেন—[আগামী মন্ত্রের সাথে অন্বয়।]
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