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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६३

    क॒दा मर्त॑मरा॒धसं॑ प॒दा क्षुम्प॑मिव स्फुरत्। क॒दा नः॑ शुश्रव॒द्गिर॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒दा । मर्त॑म् । अ॒रा॒धस॑म् । प॒दा । क्षुम्प॑म्ऽइव । स्फु॒र॒त् ॥ क॒दा । न॒: । शु॒श्र॒व॒त् । गिर॑: । इन्द्र॑: । अ॒ङ्ग ॥६३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा मर्तमराधसं पदा क्षुम्पमिव स्फुरत्। कदा नः शुश्रवद्गिर इन्द्रो अङ्ग ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कदा । मर्तम् । अराधसम् । पदा । क्षुम्पम्ऽइव । स्फुरत् ॥ कदा । न: । शुश्रवत् । गिर: । इन्द्र: । अङ्ग ॥६३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (अङ्ग) हे मित्र ! (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति आप] (कदा) कब (अराधसम्) आराधना न करनेवाले (मर्तम्) मनुष्य को (पदा) पाँव से (क्षुम्पम् इव) खुम्भी [गीली लकड़ी से उगे हुए छत्राकार छोटे पौधे] के समान (स्फुरत्) नष्ट करेंगे और (कदा) कब (नः) हमारी (गिरः) वाणियों को (शुश्रवत्) सुनेंगे ॥॥

    भावार्थ - सभापति दुःखित प्रजा की पुकार सुनकर अनाज्ञाकारी दुष्ट को इस प्रकार गिरा देवे, जैसे खुम्भी वृक्ष पाँव से कुचल जाता है ॥॥

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