Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 1

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त

    इन्द्रः॒ सेनां॑ मोहयतु म॒रुतो॑ घ्न॒न्त्वोज॑सा। चक्षूं॑ष्य॒ग्निरा द॑त्तां॒ पुन॑रेतु॒ परा॑जिता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । सेना॑म् । मो॒ह॒य॒तु॒ । म॒रुत॑: । घ्न॒न्तु॒ । ओज॑सा । चक्षूं॑षि । अ॒ग्नि: । आ । द॒त्ता॒म् । पुन॑: । ए॒तु॒ । परा॑ऽजिता ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सेनां मोहयतु मरुतो घ्नन्त्वोजसा। चक्षूंष्यग्निरा दत्तां पुनरेतु पराजिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । सेनाम् । मोहयतु । मरुत: । घ्नन्तु । ओजसा । चक्षूंषि । अग्नि: । आ । दत्ताम् । पुन: । एतु । पराऽजिता ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) प्रतापी सूर्य (सेनाम्) [शत्रु] सेना को (मोहयतु) व्याकुल कर दे। (मरुतः) दोषनाशक पवन के झोंके (ओजसा) बल से (घ्नन्तु) नाश कर दें। (अग्निः) अग्नि (चक्षूंषि) नेत्रों को (आ, दत्ताम्) निकाल देवे। [जिससे] (पराजिता) हारी हुई सेना (पुनः) पीछे (एतु) चली जावे ॥६॥

    भावार्थ - युद्धकुशल सेनापति राजा अपनी सेना का व्यूह ऐसा करे जिससे उसकी सेना सूर्य, वायु और अग्नि वा बिजुली और जल के प्रयोगवाले अस्त्र, शस्त्र, विमान, रथ, नौकादि के बल से शत्रुसेना को नेत्रादि से अङ्ग-भङ्ग करके सर्वदा हराकर भगा दे ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top