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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - मरुद्गणः छन्दः - विराड्गर्भा भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त

    यू॒यमु॒ग्रा म॑रुत ई॒दृशे॑ स्था॒भि प्रेत॑ मृ॒णत॒ सह॑ध्वम्। अमी॑मृण॒न्वस॑वो नाथि॒ता इ॒मे अ॒ग्निर्ह्ये॑षां दू॒तः प्र॒त्येतु॑ वि॒द्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । उ॒ग्रा: । म॒रु॒त॒: । ई॒दृशे॑ । स्थ॒ । अ॒भि । प्र । इ॒त॒ । मृ॒णत॑ । सह॑ध्वम् । अमी॑मृणन् । वस॑व: । ना॒थि॒ता: । इ॒मे । अ॒ग्नि: । हि । ए॒षा॒म् । दू॒त: । प्र॒ति॒ऽएतु॑ । वि॒द्वान् ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयमुग्रा मरुत ईदृशे स्थाभि प्रेत मृणत सहध्वम्। अमीमृणन्वसवो नाथिता इमे अग्निर्ह्येषां दूतः प्रत्येतु विद्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम् । उग्रा: । मरुत: । ईदृशे । स्थ । अभि । प्र । इत । मृणत । सहध्वम् । अमीमृणन् । वसव: । नाथिता: । इमे । अग्नि: । हि । एषाम् । दूत: । प्रतिऽएतु । विद्वान् ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मरुतः) हे शत्रुघातक शूरों ! (यूयम्) तुम (ईदृशे) ऐसे [कर्म, संग्राम] में (उग्राः) तीव्रस्वभाव (स्थ) हो। (अभि, प्र, इत) आगे बढ़ो, (मृणत) मारो और (सहध्वम्) जीत लो। (इमे) इन (नाथिताः) प्रार्थना किये हुए (वसवः) श्रेष्ठ पुरुषों [मरुत् गणों] ने [दुष्टों को] (अमीमृणन्) मरवा डाला है। (एषाम्) इन शत्रुओं का (दूतः) दाहकारी (अग्निः) अग्नि [समान] (विद्वान्) विद्वान् राजा (हि) अवश्य करके (प्रत्येतु) चढ़ाई करे ॥२॥

    भावार्थ - जो शूरवीर संग्रामविजयी हों, जो बैरियों के नाश करने में सहायक रहे हों, उन वीरों को अग्रगामी करें और उनका उत्साह बढ़ाते रहें और राजा विजयी सेनापतियों की पुष्टि करता हुआ शत्रुओं पर चढ़ाई करे ॥२॥

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