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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुब्गर्भाचतुष्पादुष्णिक् सूक्तम् - वनस्पति

    उत्त॑रा॒हमु॑त्तर॒ उत्त॒रेदुत्त॑राभ्यः। अ॒धः स॒पत्नी॒ या ममाध॑रा॒ साध॑राभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽत॑रा । अ॒हम् । उ॒त्ऽत॒रे॒ । उत्ऽत॑रा । इत् । उत्ऽत॑राभ्य: । अ॒ध: । स॒ऽपत्नी॑ । या । मम॑ । अध॑रा । सा । अध॑राभ्य: ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः। अधः सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतरा । अहम् । उत्ऽतरे । उत्ऽतरा । इत् । उत्ऽतराभ्य: । अध: । सऽपत्नी । या । मम । अधरा । सा । अधराभ्य: ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (उत्तरे) हे अति उत्तम [ब्रह्मविद्या] (अहम्) मैं [प्रजा] (उत्तरा) अधिक उत्तम [भूयासम्=हो जाऊँ], (उत्तराभ्यः) अन्य उत्तम [पशु आदि प्रजाओं] से (इत्) तो (उत्तरा) अधिक उत्तम [प्रजा अस्मि=प्रजा हूँ] (मम) मेरी (या) जो (अधरा) नीच (सपत्नी) विरोधिनी [अविद्या है], (सा) वह (अधराभ्यः) नीच [विपत्तियों] से (अधः) नीची है ॥४॥

    भावार्थ - मनुष्य सब पशु आदि प्राणियों से उत्तम है, इससे वह सब उत्तम विद्याओं में परम उत्तम ब्रह्मविद्या प्राप्त करके सर्वोत्कृष्ट होवे, और सब विपत्तियों वा क्लेशों के मूल अविद्या को निकालता रहे ॥४॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥ अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ यो. द. २।३,४ ॥ १-(अविद्या) मिथ्याज्ञान, २-(अस्मिता) अहंकार, ३-(राग) राग वा तृष्णा, ४-(द्वेष) द्वेष वा घृणा, और ५-(अभिनिवेश) शरीर से प्रीति वा मरण से भय, यह पाँच क्लेश हैं ॥ अविद्या पिछले चार [अस्मिता आदि] का खेत है, चाहे वे १-सोते हुए, २-सूक्ष्म, ३-दबे हुए, वा ४-फैले हुए हों ॥

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