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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुब्गर्भाचतुष्पादुष्णिक् सूक्तम् - वनस्पति
    66

    उत्त॑रा॒हमु॑त्तर॒ उत्त॒रेदुत्त॑राभ्यः। अ॒धः स॒पत्नी॒ या ममाध॑रा॒ साध॑राभ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽत॑रा । अ॒हम् । उ॒त्ऽत॒रे॒ । उत्ऽत॑रा । इत् । उत्ऽत॑राभ्य: । अ॒ध: । स॒ऽपत्नी॑ । या । मम॑ । अध॑रा । सा । अध॑राभ्य: ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः। अधः सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतरा । अहम् । उत्ऽतरे । उत्ऽतरा । इत् । उत्ऽतराभ्य: । अध: । सऽपत्नी । या । मम । अधरा । सा । अधराभ्य: ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (उत्तरे) हे अति उत्तम [ब्रह्मविद्या] (अहम्) मैं [प्रजा] (उत्तरा) अधिक उत्तम [भूयासम्=हो जाऊँ], (उत्तराभ्यः) अन्य उत्तम [पशु आदि प्रजाओं] से (इत्) तो (उत्तरा) अधिक उत्तम [प्रजा अस्मि=प्रजा हूँ] (मम) मेरी (या) जो (अधरा) नीच (सपत्नी) विरोधिनी [अविद्या है], (सा) वह (अधराभ्यः) नीच [विपत्तियों] से (अधः) नीची है ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब पशु आदि प्राणियों से उत्तम है, इससे वह सब उत्तम विद्याओं में परम उत्तम ब्रह्मविद्या प्राप्त करके सर्वोत्कृष्ट होवे, और सब विपत्तियों वा क्लेशों के मूल अविद्या को निकालता रहे ॥४॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥ अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ यो. द. २।३,४ ॥ १-(अविद्या) मिथ्याज्ञान, २-(अस्मिता) अहंकार, ३-(राग) राग वा तृष्णा, ४-(द्वेष) द्वेष वा घृणा, और ५-(अभिनिवेश) शरीर से प्रीति वा मरण से भय, यह पाँच क्लेश हैं ॥ अविद्या पिछले चार [अस्मिता आदि] का खेत है, चाहे वे १-सोते हुए, २-सूक्ष्म, ३-दबे हुए, वा ४-फैले हुए हों ॥

    टिप्पणी

    ४−(उत्तरा) उत्कृष्टरा। (अहम्) मनुष्यरूपा प्रजा। (उत्तरे) हे उत्कृष्टतरे ब्रह्मविद्ये। (उत्तराभ्यः) अन्यपश्वादिप्रजाभ्य उत्कृष्टतराभ्यः। (अधः) अधस्तात्। (सपत्नी) म० १। विरोधिनी। अविद्या। (अधरा) अन्यनिकृष्टाभ्यो विपत्तिभ्यः ॥

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    विषय

    उत्तराभ्यः उत्तरा-इन्द्राणी, अधराभ्यः अधरा-भोगवृत्ति

    पदार्थ

    १. हे (उत्तरे) = उत्कृष्ट आत्मविद्ये! तुझे प्राप्त करके (अहम्, उत्तरा) = मैं भी उत्कृष्ट जीवनवाली बनती हैं। मैं (इत) = निश्चय से (उत्तराभ्यः उत्तरा) = उत्कृष्टकतरों से भी उत्कृष्टतर होती हूँ। वस्तुत: आत्मविद्या के प्राप्त होने पर जीवन में किसी प्रकार की अवनति स्थान नहीं पाती। जीवन अधिकाधिक उत्कृष्ट बनता जाता है। ३. इन्द्राणी कहती है कि (अध:) = इस आत्मविद्या के परिणामस्वरूप (या मम) = जो यह मेरी (सपत्नी) = भोगवृत्तिरूपी सपत्नी है, (सा) = वह (अधराभ्यः अधरा) = निकृष्ट स्थितिवालों से भी निकृष्टतर स्थितिवाली हो जाती है। वह तो पाँव तले रौंद डाली जाती है। भोगवृत्ति को कुचलकर मैं योगवृत्ति में शरण लेती हूँ।

    भावार्थ

    आत्मविद्या प्राप्त करके 'इन्द्राणी' की उत्कृष्टतम स्थिति होती है और 'भोगवत्ति' की निकृष्टतम, भोगवृत्ति तो कुचल दी जाती है।

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    भाषार्थ

    (उत्तरे) हे उत्कृष्ट औषधि! तेरे कारण (अहम्) मैं (उत्तरा) उत्कृष्ट हो गई हूँ, (उत्तराभ्यः) उत्कृष्टा नारियों से (इत्) भी (उत्तरा) मैं उत्कृष्टा हूँ। (अधः)१ तदनन्तर (या मम सपत्नी) जो मेरी सपत्नी है (सा) वह (अधराभ्यः) निकृष्टाओं से भी (अधरा) निकृष्टा है। [पति प्राप्त करनेवाली कुमारी सर्वश्रेष्ठा है, गुणों में। अतः वह पति प्राप्त करने में योग्यता रखती है और सपत्नी गुणों में निकृष्टाओं से भी निकृष्टा है, अत: वह त्याज्या है।]

    टिप्पणी

    [१. अधः= अथ अनन्तरम् (सायण)। अथवा अधस्कृतः त्वमसि संभाव्यमानेन पत्या। अधस्कृता अपमानिता।]

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    विषय

    ब्रह्म-विद्या की विरोधिनी अविद्या के नाश का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे उत्तरे ! उर्ध्व लोक में तराने वाली कर्म-विद्ये ! (अहम् उत्तरा) मैं तुझ से भी अधिक उत्कृष्ट लोक में पुरुष को तराती हूं । (उत्तराभ्यः) ऊर्ध्वगति प्राप्त कराने हारी सभी विद्याओं, कर्मपद्धतियों की अपेक्षा मैं ब्रह्म-विद्या (उत्तरा इत्) उत्कृष्ट ही हूं। और (मम या सपत्नी) मेरी जो विरोधिनी अविद्या अज्ञानरूपिणी मुझ से (अधः) नीचे हैं (सा अधराभ्यः अधरा) नीचे लेजाने वाली अधम कर्मगतियों से भी नीचे गिराने वाली है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘अथा सपत्नीं’ इति ऋ०। ‘उत्तराहमुत्तराभ्य उत्तरो एकघरेभ्यः । अधः सपत्नि सामर्थ्यधरेदधरेभ्यः’ इति पैप्प० सं०। ‘उत्तराहानुत्तरे’ इति रोथकामितः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । १-३, ५ अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा अनुष्टुप्-गर्भा उष्णिग् । १ उष्णिग् गर्भा पथ्यापंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vanaspati

    Meaning

    O sanative herb of soma nature, you are higher than the rival, more efficacious than the distraction. I also am higher than the fasciantion, greater than all others who are superior, generally speaking. May that which is my rival be lower than the lowest infatuations.

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    Translation

    O supreme one, may I become superior, superior even to the superiors. May my rival wife go down, lower than the lowest.(Cf.v. X.145.3)

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    Translation

    I am stronger than this strong tendency of debauchery, I am mightier than that of mightier, let this debauchery rival to me be lower than the lowest ones.

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    Translation

    O knowledge of God, (Brahma Vidya) may I become stronger. I am mightier than all the mighty sciences. Beneath me be my rival ignorance. May it be lower than the lowest acts!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(उत्तरा) उत्कृष्टरा। (अहम्) मनुष्यरूपा प्रजा। (उत्तरे) हे उत्कृष्टतरे ब्रह्मविद्ये। (उत्तराभ्यः) अन्यपश्वादिप्रजाभ्य उत्कृष्टतराभ्यः। (अधः) अधस्तात्। (सपत्नी) म० १। विरोधिनी। अविद्या। (अधरा) अन्यनिकृष्टाभ्यो विपत्तिभ्यः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (উত্তরে) হে উৎকৃষ্ট ঔষধি ! তোমার কারণে (অহম্) আমি (উত্তরা) উৎকৃষ্ট হয়েছি, (উত্তরাভ্যঃ) উৎকৃষ্টা নারীদের থেকে (ইত্)(উত্তরা) আমি উৎকৃষ্ট। (অধঃ)১ তদনন্তর (যা মম পত্নী) যে আমার সপত্নী (সা) সে (অধরাভ্যঃ) নিকৃষ্টাদের থেকেও (অধরা) নিকৃষ্টা।

    टिप्पणी

    [পতি প্রাপ্তকারী কুমারী হলো সর্বশ্রেষ্ঠা, গুণের দিক থেকে। অতঃ সে পতি প্রাপ্তির যোগ্যতাসম্পন্না এবং সপত্নী গুণাবলীতে নিকৃষ্টাদের থেকেও নিকৃষ্টা হয়, অতঃপর সে হলো ত্যাজ্যা।] [১. অধঃ = অধ অনন্তরম্ (সায়ণ)। অথবা অধস্কৃতঃ ত্বমসি সম্ভাব্যমানেন পত্যা। অধস্কৃতা অপমানিতা।]

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    मन्त्र विषय

    উপনিষৎসপত্নীবাধনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উত্তরে) হে অতি উত্তম [ব্রহ্মবিদ্যা] ! (অহম্) আমি [প্রজা] যেন (উত্তরা) অধিক উত্তম [ভূয়াসম্=হয়ে যাই], (উত্তরাভ্যঃ) অন্য উত্তম [পশু ও প্রজাদের] থেকে (ইৎ) তো (উত্তরা) অধিক উত্তম [প্রজা অস্মি=প্রজা]। (মম) আমার (যা) যে (অধরা) নীচু (সপত্নী) বিরোধিনী [অবিদ্যা রয়েছে], (সা) তা (অধরাভ্যঃ) নীচু [বিপত্তির] থেকেও (অধঃ) নীচু ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সকল পশু আদি প্রাণীদের থেকে উত্তম, সকল উত্তম বিদ্যার মধ্যে পরম উত্তম ব্রহ্মবিদ্যা প্রাপ্ত করে সর্বোৎকৃষ্ট হোক, এবং সকল বিপত্তি বা ক্লেশের মূল অবিদ্যাকে দূর করতে থাকুক ॥৪॥ ভগবান্ পতঞ্জলি এর বচন - অবিদ্যাস্মিতারাগদ্বেষাভিনিবেশাঃ পঞ্চ ক্লেশাঃ ॥ অবিদ্যা ক্ষেত্রমুত্তরেষাং প্রসুপ্ততনুবিচ্ছিন্নোদারাণাম্ ॥ যো. দ. ২।৩,৪ ॥ ১-(অবিদ্যা) মিথ্যাজ্ঞান, ২-(অস্মিতা) অহংকার, ৩-(রাগ) রাগ বা তৃষ্ণা, ৪-(দ্বেষ) দ্বেষ বা ঘৃণা, এবং ৫-(অভিনিবেশ) শরীর থেকে প্রীতি বা মরণের ভয়, এগুলো হলো পাঁচটি ক্লেশ ॥ অবিদ্যা পূর্বের চারটি [অস্মিতা আদি] এর জমি, হোক তা ১-শয়ন, ২-সূক্ষ্ম, ৩-চাপা, বা ৪-বিস্তারিত ॥

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