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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वनस्पति
    68

    अ॒हम॑स्मि॒ सह॑मा॒नाथो॒ त्वम॑सि सास॒हिः। उ॒भे सह॑स्वती भू॒त्वा स॒पत्नीं॑ मे सहावहै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । सह॑माना । अथो॒ इति॑ । त्वम् । अ॒सि॒ । स॒स॒हि: । उ॒भे इति॑ । सह॑स्वती॒ इति॑ । भू॒त्वा । स॒ऽपत्नी॑म् । मे॒ । स॒हा॒व॒है॒ ॥१८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमस्मि सहमानाथो त्वमसि सासहिः। उभे सहस्वती भूत्वा सपत्नीं मे सहावहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । अस्मि । सहमाना । अथो इति । त्वम् । असि । ससहि: । उभे इति । सहस्वती इति । भूत्वा । सऽपत्नीम् । मे । सहावहै ॥१८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्या] (अहम्) मैं (सहमाना) जयशील [प्रजा] (अस्मि) हूँ, (अथो) और (त्वम्) तू भी (सासहिः=ससहिः) जयशील (असि) है। (उभे) दोनों हम [तू और मैं] (सहस्वती=०-त्यौ) जयशील (भूत्वा) होकर (मे) मेरी (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (सहावहै) जीत लें ॥५॥

    भावार्थ

    योगी जन ब्रह्मविद्या में एकवृत्ति होकर अविद्या को जीतकर आनन्द भोगते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(सहमाना) षह अभिभवे-शानच्। अभिभवित्री प्रजा। (अथो) अपि च। (सासहिः) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। इति षह अभिभवे-कि, लिड्वद्भावः। छान्दसो दीर्घः। अभिभवित्री। (उभे) त्वं च अहं च, आवाम्। (सहस्वती) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। अभिभवनवत्यौ। जयशीले। (सपत्नीम्) म० १। विरोधिनीम्, अविद्याम्। (सहावहै) षह अभिभवे-लोट्। आवाम् अभिभवाव ॥

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    विषय

    उभे सहस्वती भूत्वा

    पदार्थ

    १. 'इन्द्राणी' आत्मविद्या को सम्बोधित करती हुई कहती है कि (अहम्) = मैं सहमाना (अस्मि) = शत्रुओं का पराभव करनेवाली हूँ। (अथ उ) = और अब (त्वम्) = तू भी (सासहिः) = शत्रुओं का खूब ही पराभव करनेवाली (असि) = है। २. (उभे) = हम दोनों (सहस्वती) = शत्रुओं का मर्षण करने [कुचल डालने]-वाले बल से युक्त (भूत्वा) = होकर (मे) = मेरी (सपत्नीम्) = सौतरूप इस भोगवृत्ति को सहाबह-मसल डालते हैं। इसे समाप्त करके ही वास्तविक आनन्द का अनुभव होता है।

    भावार्थ

    इन्द्राणी व आत्मविद्या दोनों मिलकर भोगवृत्ति का पराभव कर डालें।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं विवाहेच्छु कुमारी (अस्मि) हूँ, (सहमाना) सपत्नी का पराभव करनेवाली, (अथो) तथा (त्वम्) हे ओषधि! तू (असि) है (सासहि:) अति पराभव करनेवाली; (उभे) हम दोनों (सहस्वती भूत्वा) पराभव करनेवाली होकर, (मे) मेरी (सपत्नीम्) सपत्नी को (सहावहै) हम दोनों पराभूत करें।

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    विषय

    ब्रह्म-विद्या की विरोधिनी अविद्या के नाश का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे कर्म विद्ये ! (अहम्) मैं ब्रह्म-विद्या (सहमाना) सब काम क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करती हूं (अथो) और (त्वम् सासहिः असि) तू भी निरन्तर सब आलस्य आदि पर वश करती है। (उभे) हम दोनों (सहस्वती) सहनशील और विजयशील होकर एक हो जाय तो (मे सपत्नी) मेरी विरोधिनी अविद्या को हम दोनों (सहावहै) जीत लें ।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘भूत्वी’ इति पाठभेदः, ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । १-३, ५ अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा अनुष्टुप्-गर्भा उष्णिग् । १ उष्णिग् गर्भा पथ्यापंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vanaspati

    Meaning

    I am patient, challenging and victorious. You too are unassailable Soma. You and I, both challenging and victorious, shall subdue the rival.

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    Translation

    I am conquering by nature. You also are vanquisher of enemies. Let both of us, full of conquering power, vanquish my rival (wife): (Cf Rv. X.145.5) (sahamānā; sāsahi; sahasvatī and sahāvahai-abhibhavitri =. conquering one, vanquisher and so on.)

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    Translation

    I am a woman of conquering Spirit and the herb Banaparni is victorious over such an evil. Let both of us baving the power of overcoming subdue this tendency of debauchery.

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    Translation

    I am the conqueror of lust and indignation, thou art the conqueror of sloth; may we both, tranquil and victorious, in unison, subdue ignorance, my foe.

    Footnote

    I: Brahma Vidya. Thou: Karma Vidya.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(सहमाना) षह अभिभवे-शानच्। अभिभवित्री प्रजा। (अथो) अपि च। (सासहिः) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। इति षह अभिभवे-कि, लिड्वद्भावः। छान्दसो दीर्घः। अभिभवित्री। (उभे) त्वं च अहं च, आवाम्। (सहस्वती) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। अभिभवनवत्यौ। जयशीले। (सपत्नीम्) म० १। विरोधिनीम्, अविद्याम्। (सहावहै) षह अभिभवे-लोट्। आवाम् अभिभवाव ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অহম্ অস্মি) আমি বিবাহেচ্ছুক কুমারী হই (সহমানা) সপত্নীকে পরাজিতকারিনী, (অথো) এবং (ত্বম্) হে ঔষধি ! তুমি (অসি) হও (সাসহিঃ) অতি পরাজিতকারিনী; (উভে) আমরা উভয়েই (সহস্বতী ভূত্বা) পরাজিতকারী হয়ে, (মে) আমার (সপত্নীম্) সপত্নীকে (সহাবহৈ) আমার পরাজিত করি।

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    मन्त्र विषय

    উপনিষৎসপত্নীবাধনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বিদ্যা] (অহম্) আমি (সহমানা) জয়শীল [প্রজা] (অস্মি) হই, (অথো) এবং (ত্বম্) তুমিও (সাসহিঃ=সসহিঃ) জয়শীল (অসি) হও। (উভে) আমরা উভয়েই [তুমি এবং আমি] (সহস্বতী=০-ত্যৌ) জয়শীল (ভূত্বা) হয়ে (মে) আমার (সপত্নীম্) বিরোধিনী [অবিদ্যা]কে (সহাবহৈ) জয় করি ॥৫॥

    भावार्थ

    যোগীগণ ব্রহ্মবিদ্যায় একবৃত্তি হয়ে অবিদ্যাকে জয় করে আনন্দ ভোগ করে ॥৫॥

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