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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    यं त्वा॒ होता॑रं॒ मन॑सा॒भि सं॑वि॒दुस्त्रयो॑दश भौव॒नाः पञ्च॑ मान॒वाः। व॑र्चो॒धसे॑ य॒शसे॑ सू॒नृता॑वते॒ तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्चा॒ । होता॑रम् । मन॑सा । अ॒भि । स॒म्ऽवि॒दु: । त्रय॑:ऽदश । भौ॒व॒ना: । पञ्च॑ । मा॒न॒वा: । व॒र्च॒:ऽधसे॑ । य॒शसे॑ । सू॒नृता॑ऽवते । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा होतारं मनसाभि संविदुस्त्रयोदश भौवनाः पञ्च मानवाः। वर्चोधसे यशसे सूनृतावते तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्चा । होतारम् । मनसा । अभि । सम्ऽविदु: । त्रय:ऽदश । भौवना: । पञ्च । मानवा: । वर्च:ऽधसे । यशसे । सूनृताऽवते । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (त्रयोदश) तेरह [दो कान, दो नथनें, दो आँखें और एक मुख यह सात शिर के, और दो हाथ, दो पद, एक उपस्थेन्द्रिय, और एक गुदास्थान, यह छः शिर के नीचे के] (भौवनाः) भुवनों से संबन्धवाले प्राणी, और (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पाँच तत्त्व] से संबन्धवाले (मानवाः) मनुष्य (मनसा) मनन शक्ति से (वर्चोधसे) तेज धारण करानेवाले और (सूनृतावते) प्रिय सत्य वाणीवाले (यशसे) यश के लिये (यम्) जिस (त्वा) तुझ [अग्नि] को (होतारम्) दानी (अभि) सब प्रकार (संविदुः) ठीक-ठीक जानते हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥५॥

    भावार्थ - सब शरीरधारी उस परमपिता की महिमा विचारपूर्वक गाकर तेजस्वी, सत्यवादी और यशस्वी होते हैं, उसको यह हमारा नमस्कार है ॥५॥ ‘पञ्च मानवाः’ शब्द ‘पञ्चजनाः’ शब्द का पर्यायवाची है, जिसका अर्थ “मनुष्य” है−निघ० २।३। उसकी व्याख्या, निरु० ३।८ में इस प्रकार की है−“पञ्च जनाः” गन्धर्व, पितर, देव, असुर और राक्षस, ऐसा कोई-२ मानते हैं, चारों वर्ण और निषाद पाँचवाँ, यह औपमन्यव ऋषि का मत है निषाद किस लिये, इसमें पाप स्थित है ॥

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