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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - ऊर्ध्वा दिक्, बृहस्पतिः, श्वित्रः, वर्षम् छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भाष्टिः सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    ऊ॒र्ध्वा दिग्बृह॒स्पति॒रधि॑पतिः श्वि॒त्रो र॑क्षि॒ता व॒र्षमिष॑वः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽधिपतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वा । दिक् । बृह॒स्पति॑: । अधि॑ऽपति: । श्वि॒त्र: । र॒क्षि॒ता । व॒र्षम् । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म:॥२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वा । दिक् । बृहस्पति: । अधिऽपति: । श्वित्र: । रक्षिता । वर्षम् । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । व: । जम्भे । दध्म:॥२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़े-२ शूरों का स्वामी, बृहस्पति [पद वाला सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (श्वित्रः) श्वेत वर्णवाले साँप [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे, (वर्षम्) वर्षा [वृष्टि विद्या] (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः रक्षितृभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और रक्षकों के लिये (नमोनमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न, और (एभ्यः इषुभ्यः) उन बाणों [बाण वालों] को (नमो नमः) बहुत-२ सत्कार वा अन्न (अस्तु) होवे। (यः) जो [वैरी] (अस्मान् द्वेष्टि) हमसे वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम् द्विष्मः) हम वैर करते हैं, [हे शूरो !] (तम्) उसको (वः जम्भे) तुम्हारे जबड़े में (दध्मः) हम धरते हैं ॥६॥

    भावार्थ - (बृहस्पति) मुख्य सेनापति पर्वत आदि उच्च स्थान में (श्वित्र) नाम सेनाव्यूह रचकर ठहरे और वारुणेय अर्थात् जल संबन्धी अस्त्र शस्त्रों से, अथवा अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करके वैरियों को मिटाकर संसार में सैनिकों समेत कीर्ति पावे ॥६॥ यही मन्त्र [अथर्व० का० ३ सू० २७ म० १-६] महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत पुस्तक “पञ्चमहायज्ञविधिः” में “मनसा परिक्रमा मन्त्राः” के नाम से ईश्वरपरक अर्थ में आये हैं, वह अर्थ इस प्रकार होता है−पदार्थ−(प्राची=प्राच्याः) पूर्व वा सन्मुखवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (अग्निः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (असितः) बन्धनरहित (रक्षिता) रक्षक है, [जिसके] (आदित्याः) प्राण और किरणें (इषवः) बाण [के समान] हैं (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाता, (रक्षितृभ्यः) रक्षा करनेवाले ईश्वरीय गुणों को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार, और (एभ्यः) इन (इषुभ्यः) बाणों [पापियों के लिये बाणरूप गुणों] को (नमोनमः) बारम्बार नमस्कार (अस्तु) होवे। (यः) जो [अज्ञानी] (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, [अथवा] (यम्) जिस [अज्ञानी] से (वयम्) हम (द्विष्मः) वैर करते हैं, [हे ईश्वर गुणो !] (तम्) उसको (वः) तुम्हारे (जम्भे) मुख वा वश में (दध्मः) हम धरते हैं ॥१॥ भावार्थ−मनुष्य अपने सन्मुख और पूर्व दिशा में जगद्रक्षक परमात्मा को साक्षात् जानकर पापों से बचें और सब प्राणी अज्ञान और वैर छोड़कर परस्पर मित्रवत् रहें। यही भावार्थ अगले मन्त्रों में लगालें ॥१॥ पदार्थ−(दक्षिणा=दक्षिणस्याः) दक्षिण वा दाहिनी (दिक्=दिशः) दिशा का (इन्द्रः) पूर्ण ऐश्वर्यवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (तिरश्चिराजिः=०-जेः) तिरछे चलनेवाले कीट, पतङ्ग, बिच्छू आदि की पंक्ति से (रक्षिता) बचानेवाला है, और (पितरः) ज्ञानी लोग (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥२॥ पदार्थ−(प्रतीची=०-च्याः) पश्चिम वा पीछेवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (वरुणः) सब में उत्तम परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता, (पृदाकु=०-कुभ्यः) बड़े-२ अजगर सर्पादि विषधारी प्राणियों से (रक्षिता) बचानेवाला है, (अन्नम्) जिसके अन्न [अर्थात् पृथिव्यादि पदार्थ] (इषवः) बाण [बाणों के समान श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना के लिये] हैं। (तेभ्यः) उन..... [म० १] ॥३॥ पदार्थ−(उदीची=०-च्याः) उत्तर वा बाईं (दिक्=दिशः) दिशा का (सोमः) सब जगत् का उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (स्वजः) अच्छे प्रकार अजन्मा (रक्षिता) बचानेवाला है, [जिसके] (अशनिः) बिजुली (इषवः) बाण हैं। (तेभ्यः) उन.... [म० १] ॥४॥ पदार्थ−(ध्रुवा=ध्रुवायाः) नीचेवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (विष्णुः) व्यापक परमात्मा (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (कल्माषग्रीवः) हरित रंगवाले वृक्षादि की ग्रीवावाला (रक्षिता) बचानेवाला है, [जिसके] (वीरुधः) सब वृक्ष (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥५॥ पदार्थ−(ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिक्=दिशः) दिशा का (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी अर्थात् वेदशास्त्र, और बड़े आकाशादि का स्वामी परमेश्वर (अधिपतिः) अधिष्ठाता और (श्वित्रः) ज्ञानमय और वृद्धिमय (रक्षिता) बचानेवाला है, जिसके (वर्षम्) बरसा के बिन्दु (इषवः) बाण [के समान] हैं। (तेभ्यः) उन... [म० १] ॥६॥

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