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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    सूक्त - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त

    नू॒नं तद॑स्य का॒व्यो हि॑नोति म॒हो दे॒वस्य॑ पू॒र्व्यस्य॒ धाम॑। ए॒ष ज॑ज्ञे ब॒हुभिः॑ सा॒कमि॒त्था पूर्वे॒ अर्धे॒ विषि॑ते स॒सन्नु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नू॒नम् । तत् । अ॒स्य॒ । का॒व्य: । हि॒नो॒ति॒ । म॒ह: । दे॒वस्य॑ । पू॒र्व्यस्य॑ । धाम॑ । ए॒ष: । ज॒ज्ञे॒ । ब॒हुऽभि॑: । सा॒कम् । इ॒त्था । पूर्वे॑ । अर्धे॑ । विऽसि॑ते स॒सन् । नु ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नूनं तदस्य काव्यो हिनोति महो देवस्य पूर्व्यस्य धाम। एष जज्ञे बहुभिः साकमित्था पूर्वे अर्धे विषिते ससन्नु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नूनम् । तत् । अस्य । काव्य: । हिनोति । मह: । देवस्य । पूर्व्यस्य । धाम । एष: । जज्ञे । बहुऽभि: । साकम् । इत्था । पूर्वे । अर्धे । विऽसिते ससन् । नु ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (काव्यः) स्तुतियोग्य परमेश्वर [वेनः, म० १] (अस्य) इस (पूर्वस्य) समग्र जगत् के हित करनेवाले (देवस्य) प्रकाशमान सूर्य के (तत्) उस (महः) विशाल (धाम) तेज को (नूनम्) अवश्य (हिनोति) भेजता है। (ससन्) सोता हुआ (एषः) यह परमेश्वर (पूर्वे) समस्त (अर्धे) प्रवृद्ध जगत् के (विषिते) खुलने पर (इत्था) इस प्रकार से [जैसे सूर्य] (बहुभिः साकम्) बहुत [लोकों] के साथ (नु) शीघ्र (जज्ञे) प्रकट हुआ है ॥६॥

    भावार्थ - परमेश्वर प्रलय की अवस्था में सोता हुआ सा था, उसने सृष्टि उत्पन्न करने पर, आकर्षण, आतप वृष्टि आदि द्वारा संसार के हित के लिये सूर्य, पृथिवी, बृहस्पति, शुक्र आदि असंख्य लोक रचे। उस जगदीश्वर का सामर्थ्य विचार कर हम अपना सामर्थ्य बढ़ाकर उपकार करें ॥६॥

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