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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    सूक्त - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त

    स बु॒ध्न्यादा॑ष्ट्र ज॒नुषो॒ऽभ्यग्रं॒ बृह॒स्पति॑र्दे॒वता॒ तस्य॑ स॒म्राट्। अह॒र्यच्छु॒क्रं ज्योति॑षो॒ जनि॒ष्टाथ॑ द्यु॒मन्तो॒ वि व॑सन्तु॒ विप्राः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । बु॒ध्न्यात् । आ॒ष्ट्र॒ । ज॒नुष॑: । अ॒भि । अग्र॑म् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वता॑ । तस्य॑ । स॒म्ऽराट् । अह॑: । यत् । शु॒क्रम् । ज्योति॑ष: । जनि॑ष्ट । अथ॑ । द्यु॒ऽमन्त॑: । वि । व॒स॒न्तु॒ । विप्रा॑: ॥१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्। अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । बुध्न्यात् । आष्ट्र । जनुष: । अभि । अग्रम् । बृहस्पति: । देवता । तस्य । सम्ऽराट् । अह: । यत् । शुक्रम् । ज्योतिष: । जनिष्ट । अथ । द्युऽमन्त: । वि । वसन्तु । विप्रा: ॥१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (सः) ईश्वर (जनुषः) उत्पन्न जगत् के (बुध्न्यात्) मूल देश से लेकर (अग्रम् अभि) उपरि भाग तक (आष्ट्र=आष्ट) व्याप्त हुआ। (बृहस्पतिः) बड़े बड़ों का स्वामी (देवता) प्रकाशमान परमेश्वर (तस्य) उस [जगत्] का (सम्राट्) सम्राट् [राजराजेश्वर] है। (यत्) क्योंकि (ज्योतिषः) ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर से (शुक्रम्) चमचमाता हुआ (अहः) दिन [सूर्य] (जनिष्ट=अजनिष्ट) उत्पन्न हुआ, (अथ) तभी (विप्राः) इन्द्रियाँ वा बुद्धिमान् लोग (द्युमन्तः) प्रकाशमान् होकर (वि) विविध प्रकार से (वसन्तु) निवास करें ॥५॥

    भावार्थ - परमेश्वर इस सब जगत् के आदि अन्त में विराजमान है, वही सार्वभौम शासक है, उसीने सूर्य को बनाया है जिससे इन्द्रियाँ प्रकाश पाकर अपना व्यापार करती हैं। उसीसे पंडित जन विद्या प्रकाश करके कीर्त्तिमान होते हैं ॥५॥ पं० सेवकलाल कृष्णदास की संहिता और सायणभाष्य में (आष्ट्र) के स्थान में [आष्ट] है ॥

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