Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 12

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    सूक्त - ऋभुः देवता - वनस्पतिः छन्दः - त्रिपदा यवमध्या भुरिग्गायत्री सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त

    स उत्ति॑ष्ठ॒ प्रेहि॒ प्र द्र॑व॒ रथः॑ सुच॒क्रः सु॑प॒विः सु॒नाभिः॒। प्रति॑ तिष्ठो॒र्ध्वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । प्र । इ॒हि॒ । प्र । द्र॒व॒ । रथ॑: । सु॒ऽच॒क्र: । सु॒ऽप॒वि: । सु॒ऽनाभि॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । ऊ॒र्ध्व: ॥१२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स उत्तिष्ठ प्रेहि प्र द्रव रथः सुचक्रः सुपविः सुनाभिः। प्रति तिष्ठोर्ध्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । उत् । तिष्ठ । प्र । इहि । प्र । द्रव । रथ: । सुऽचक्र: । सुऽपवि: । सुऽनाभि: । प्रति । तिष्ठ । ऊर्ध्व: ॥१२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (सः=स त्वम्) सो तू (उत्तिष्ठ) उठ, (प्रेहि) आगे बढ़, (सुचक्रः) सुन्दर पहियेवाले, (सुपविः) दृढ़ नेमि वा पुट्ठीवाले, (सुनाभिः) सुन्दर मध्य छिद्रवाले (रथः) रथ [के समान] (प्र द्रव) वेग से चल और (ऊर्ध्वः) ऊँचा होकर (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठित हो ॥६॥

    भावार्थ - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक आगे बढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त करे, जैसे उत्तम शिल्पी का बनाया हुआ सुदृढ़ रथ अन्य रथों से आगे निकल जाता है ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top