अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - ऋभुः
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्रिपदा यवमध्या भुरिग्गायत्री
सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त
56
स उत्ति॑ष्ठ॒ प्रेहि॒ प्र द्र॑व॒ रथः॑ सुच॒क्रः सु॑प॒विः सु॒नाभिः॒। प्रति॑ तिष्ठो॒र्ध्वः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । प्र । इ॒हि॒ । प्र । द्र॒व॒ । रथ॑: । सु॒ऽच॒क्र: । सु॒ऽप॒वि: । सु॒ऽनाभि॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । ऊ॒र्ध्व: ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स उत्तिष्ठ प्रेहि प्र द्रव रथः सुचक्रः सुपविः सुनाभिः। प्रति तिष्ठोर्ध्वः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । उत् । तिष्ठ । प्र । इहि । प्र । द्रव । रथ: । सुऽचक्र: । सुऽपवि: । सुऽनाभि: । प्रति । तिष्ठ । ऊर्ध्व: ॥१२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अपने दोष मिटाने का उपदेश।
पदार्थ
(सः=स त्वम्) सो तू (उत्तिष्ठ) उठ, (प्रेहि) आगे बढ़, (सुचक्रः) सुन्दर पहियेवाले, (सुपविः) दृढ़ नेमि वा पुट्ठीवाले, (सुनाभिः) सुन्दर मध्य छिद्रवाले (रथः) रथ [के समान] (प्र द्रव) वेग से चल और (ऊर्ध्वः) ऊँचा होकर (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठित हो ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य प्रयत्नपूर्वक आगे बढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त करे, जैसे उत्तम शिल्पी का बनाया हुआ सुदृढ़ रथ अन्य रथों से आगे निकल जाता है ॥६॥
टिप्पणी
६−(सः) तादृशो विचारवान् त्वम् (उत्तिष्ठ) उद्गच्छ। सावधानो भव (प्रेहि) प्रकर्षेण गच्छ (प्रद्रव) प्रधाव (रथः) हनिकुषिनीरमि०। उ० २।२। इति रमु क्रीडायाम्, वा रंहतेर्गतिकर्मणः क्थन्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा-निरु० ९।११। वेगवान्। स्यन्दनो यथा (सुचक्रः) सुदृढैश्चक्रैर्युक्तः (सुपविः) सुदृढः पविर्नेमिश्चक्रधारा यस्य स तथोक्तः (सुनाभिः) दृढया नाभ्या, अच्छिद्रेण युक्तः (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (ऊर्ध्वः) उत्थितः सन् ॥
विषय
'सुचक्र, सुपवि, सुनाभि' रथ
पदार्थ
१. हे घायल पुरुष ! (स:) = यह तू ओषधि-प्रयोग से संहितगात्र हुआ-हुआ (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ा हो, (प्रेहि) = प्रकर्षेण इधर-उधर जानेवाला हो (प्रद्रव) = वेग से जानेवाला हो। २. तेरा यह (रथ:) = शरीर रथ अब (सुचक्र:) = उत्तम हाथ-पाँव आदि अङ्गोंवाला हो गया है, (सुपविः) उत्तम नेमि व चक्रधारावाला यह शरीर-रथ है, (सुनाभि:) = उत्तम नाभिवाला है। इसप्रकार अब तू सुदृढ़ अङ्गोंवाला हुआ-हुआ (ऊर्ध्व:) = उत्थित हुआ-हुआ (प्रतितिष्ठ) = अपने कार्यों के लिए प्रतिष्ठित हो।
भावार्थ
रोहणी के प्रयोग से स्वस्थ व सुदृढ अङ्गोंवाला हुआ-हुआ यह पुरुष अपने कार्यों में व्यापृत हो जाए।
भाषार्थ
(सुचक्रः) उत्तम चक्रोंवाला, (सुपवि:) उत्तम पवि अर्थात् रथनेमिवाला, (सुनाभिः) उत्तमनाभिवाला (रथः) रथ जैसे वेग से द्रुत होता है, चलता है, वैसे हे रोगिन् ! (प्र द्रव) द्रुतगति अर्थात् वेग से चल; एतदर्थ (सः) वह तू (उत् तिष्ठ) [शय्या से] उत्थान कर, उठ (प्रेहि) आगे बढ़ और (ऊर्ध्वः) उत्थित हुआ (प्रतितिष्ठ) पैरों पर प्रतिष्ठित अर्थात् दृढ़रूप में स्थित हो जा।
टिप्पणी
[पवि=रथनेमिर्भवति (निरुक्त ५।१।५; पद पविः (२५)।रथनेमि है लोहचक्र जिसे कि पहिये की परिधि पर चढ़ाया जाता है, पहिये की सुदृढ़ता के लिए। नाभिः= यह है पहिये के केन्द्र में स्थित अङ्ग, जिसमें पहिये के अरे लगे रहते हैं, बंधे रहते हैं। नाभिः=णह बन्धने (दिवादिः)।प्रतितिष्ठ= पादयोः प्रतिष्ठा (अथर्व ० १९।६०।२)।]
विषय
कटे फटे अंगों की चिकित्सा।
भावार्थ
इस प्रकार रोगी का घाव अच्छा हो जाने पर वैद्य उसको आज्ञा दे कि (सः) वह तू (उत्-तिष्ठ) उठ खड़ा हो, (प्रेहि) चल, आजा (प्र द्रव) फिर अच्छी प्रकार भाग, अब तेरा शरीर (सुचक्रः) उत्तम चक्रों से युक्त (सुपविः) उत्तम हाल, लोह-पट्टी से जढ़े हुए (सुनाभिः) सुन्दर उत्तम नाभि वाले (रथः) रथ के समान ठीक होगया है (प्रति तिष्ट ऊर्ध्वः) ऊपर उठ खड़ा हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋभुर्ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्रिपदा गायत्री। ६ त्रिपदा यवमध्या भुरिग्गायत्रीं। ७ भुरिक्। २, ५ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Rohini Vanaspati
Meaning
Arise and stand, O patient, move up, go fast like a chariot of strong wheels, strong felly and strong nave, stand, stand and stay, stand firm and stay up.
Translation
Treated as such, O man, get up; run forward like a chariot with good wheels (cakra), good fellies (pavi) and good naves (nabhi). Occupy a high and respected place (stand up firm and erect).
Translation
O patient! you arise, advance, speed forth, now your body is as fit as the chariot which has good wheel, good naves and good fellies. Stand up erect upon your feet.
Translation
O patient, arise, advance, speed forth like the car having goodly wheels, naves and fellies. Stand up erect upon thy feet.
Footnote
The physician addresses this verse to the patient when he is cured.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(सः) तादृशो विचारवान् त्वम् (उत्तिष्ठ) उद्गच्छ। सावधानो भव (प्रेहि) प्रकर्षेण गच्छ (प्रद्रव) प्रधाव (रथः) हनिकुषिनीरमि०। उ० २।२। इति रमु क्रीडायाम्, वा रंहतेर्गतिकर्मणः क्थन्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा-निरु० ९।११। वेगवान्। स्यन्दनो यथा (सुचक्रः) सुदृढैश्चक्रैर्युक्तः (सुपविः) सुदृढः पविर्नेमिश्चक्रधारा यस्य स तथोक्तः (सुनाभिः) दृढया नाभ्या, अच्छिद्रेण युक्तः (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (ऊर्ध्वः) उत्थितः सन् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal