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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गोसमूहः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - गोसमूह सूक्त

    न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्य॒थिरा द॑धर्षति। दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ता: । न॒श॒न्ति॒ । न । द॒भा॒ति॒ । तस्क॑र: । न । आ॒सा॒म् । आ॒मि॒त्र: । व्य॒थि: । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ । दे॒वान् । च॒ । याभि॑: । यज॑ते । ददा॑ति । च॒ । ज्योक् । इत् । ताभि॑: । स॒च॒ते॒ । गोऽप॑ति: । स॒ह ॥२१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । ता: । नशन्ति । न । दभाति । तस्कर: । न । आसाम् । आमित्र: । व्यथि: । आ । दधर्षति । देवान् । च । याभि: । यजते । ददाति । च । ज्योक् । इत् । ताभि: । सचते । गोऽपति: । सह ॥२१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (ताः) वे [विद्यायें] (न) नहीं (नशन्ति) नष्ट होती हैं, (न) न [उन्हें] (तस्करः) चोर (दभाति) ठगता है, (न)(आमित्रः) पीड़ा देनेवाला (व्यथिः) व्यथाकारी शत्रु (आसाम्) इनकी (आ दधर्षति) हंसी उड़ाता है। (च) और (गोपतिः) विद्याओं का स्वामी, वाचस्पति (याभिः) जिन [विद्याओं] से (देवान्) दिव्य गुणों को (यजते) पूजता (च) और (ददाति) देता है, (ताभिः सह) उन [विद्याओं] के साथ (ज्योक् इत्) बहुत ही काल तक वह (सचते) मिला रहता है ॥३॥

    भावार्थ - विद्या अक्षय कोश है। जो मनुष्य विद्याओं को सत्कारपूर्वक ग्रहण करके संसार में फैलाता है। वह यशस्वी होकर सदा आनन्द भोगता है ॥३॥

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