अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्य॒थिरा द॑धर्षति। दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठन । ता: । न॒श॒न्ति॒ । न । द॒भा॒ति॒ । तस्क॑र: । न । आ॒सा॒म् । आ॒मि॒त्र: । व्य॒थि: । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ । दे॒वान् । च॒ । याभि॑: । यज॑ते । ददा॑ति । च॒ । ज्योक् । इत् । ताभि॑: । स॒च॒ते॒ । गोऽप॑ति: । स॒ह ॥२१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ॥
स्वर रहित पद पाठन । ता: । नशन्ति । न । दभाति । तस्कर: । न । आसाम् । आमित्र: । व्यथि: । आ । दधर्षति । देवान् । च । याभि: । यजते । ददाति । च । ज्योक् । इत् । ताभि: । सचते । गोऽपति: । सह ॥२१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्या के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ताः) वे [विद्यायें] (न) नहीं (नशन्ति) नष्ट होती हैं, (न) न [उन्हें] (तस्करः) चोर (दभाति) ठगता है, (न) न (आमित्रः) पीड़ा देनेवाला (व्यथिः) व्यथाकारी शत्रु (आसाम्) इनकी (आ दधर्षति) हंसी उड़ाता है। (च) और (गोपतिः) विद्याओं का स्वामी, वाचस्पति (याभिः) जिन [विद्याओं] से (देवान्) दिव्य गुणों को (यजते) पूजता (च) और (ददाति) देता है, (ताभिः सह) उन [विद्याओं] के साथ (ज्योक् इत्) बहुत ही काल तक वह (सचते) मिला रहता है ॥३॥
भावार्थ
विद्या अक्षय कोश है। जो मनुष्य विद्याओं को सत्कारपूर्वक ग्रहण करके संसार में फैलाता है। वह यशस्वी होकर सदा आनन्द भोगता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(न) नहि (ताः) गावः। विद्याः (नशन्ति) णश अदर्शने, श्यनः शप्। नश्यन्ति (दभाति) दम्भु दम्भे=वञ्चने, छान्दसं रूपम्। दम्भयति दभ्नोति वञ्चति ताः तस्करः अ० ४।३।२। उपतापकरः। चोरः (आसाम्) गवाम्। विद्यानाम् (आमित्रः) अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति आङ्+अम पीडने-इत्रच्। आ समन्ताद् आमयति पीडयतीति सः। शत्रुः (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति व्यथ भयसंचलनयोः-इन्। व्यथाजनको दुष्टः (आ दधर्षति) धृष प्रहसने। आधर्षति आधर्षणं प्रहसनं तिरस्कारं करोति (देवान्) दिव्यगुणान् (च) (याभिः) गोभिः। विद्याभिः (यजते) पूजयति (ददाति) प्रयच्छति (च) (ज्योक्) निरन्तरम् (इत्) (ताभिः) गोभिः। विद्याभिः (सचते) समवैति (गोपतिः) गवां विद्यानां स्वामी। वाचस्पतिः (सह) सहितः ॥
विषय
देवयज्ञ व दक्षिणा की साधनभूत गौएँ
पदार्थ
१. (ता:) = प्रभु से दी गई वे गौएँ (न नशन्ति) = नष्ट नहीं होती हैं, (तस्कर:) = चोर (न दभाति) = इन्हें हिसित नहीं करता। (आसाम्) = इन गौओं का (आमित्र:) = [अमित्रजनित:] शत्रुओं से किया हुआ (व्यथि:) = व्यथाजनक आयुध न (आदधर्षति) = धर्षण नहीं करता-शत्रुओं के अस्त्र इन्हें पीड़ित नहीं करते। २. (च) = और (याभि:) = जिन गौओं के द्वारा (देवान् यजते) = क्षीर आदि हवियों को प्राप्त करके दवेयज्ञ करता है (च) = और (ददाति) = जिन गौओं को दक्षिणा के रूप में देता है, (ताभि: सह) = उन गौओं के साथ यह (गोपति:) = गौओं की रक्षा करनेवाला यज्ञशील पुरुष (ज्योग् इत्) = निश्चय से चिरकाल तक (सचते) = समवेत होता है-इन गौओं से कभी पृथक् नहीं होता।
भावार्थ
यज्ञशील पुरुष का गौओं के साथ सदा सम्बन्ध रहता है। इनके द्वारा ही वह देवयज्ञ कर पाता है और दक्षिणा देता है। ये गौएँ चोरों और शत्रुओं के अस्त्रों से हिंसित नहीं होती।
भाषार्थ
(ता: न नशन्ति) वे गौएँ नष्ट नहीं होती, (न तस्करः दभाति) न चोर, न डाकू दम्भपूर्वक इनका चौर्य कर पाता है, (आमित्र:=अमित्र:) दुश्मन (व्यथि:) पीड़ादायक होकर (आसाम्) इन गौओं का (न आ दधर्षति) धर्षण नहीं करता। (याभिः) जिन गौओं द्वारा (गोपतिः) गोरक्षक (देवान् यजते) देवयज्ञ करता है। (ददाति च) और इनके दूध का दान करता है, वह (गोपतिः) गौ-रक्षक या गोस्वामी (ताभिः सह) उन गौओं के साथ (ज्योक्) चिरकाल तक (सचते) सम्बद्ध रहता है।
टिप्पणी
[गोशाला राजकीय है, अत: इन गौओं का पालन-पोषण तथा औषधोपचार ठीक प्रकार से होता है, अत: ये नष्ट नहीं होती, पूर्ण आयु वाली होती हैं। इनकी रक्षा का प्रबन्ध भी यथोचित होता है और चोर या डाकू इनका चौर्य नहीं कर सकते। गोपति इनके दूध, दधि तथा घृत द्वारा देवयज्ञ करता रहता है, नियमपूर्वक अग्निहोत्रादि करता रहता है। तथा प्रजाजनों की सेवा भी गौओं के दूध द्वारा करता रहता है। ऐसा गोपति अर्थात् राज्य द्वारा नियुक्त प्रबन्धक, चिरकाल तक, गोपति रूप में बना रहता है।] [दभाति= लेट् लकार, आट् आगम।]
विषय
गो-कीर्तन।
भावार्थ
योगी के दीर्घ जीवन का उपदेश करते हैं। (ताः) उस की गोरूप वे इन्द्रियां (न नशन्ति) नहीं नष्ट होतीं, (तस्करः) अपहरण करने वाला चोर, मृत्यु भी (न दभाति) योगज बल से युक्त उन गौ अर्थात् इन्द्रिय सामर्थ्यो को पीड़ित नहीं करता। (आसाम् अमित्रः) इनको पीड़ा देने वाला शत्रु रूप (व्यथिः) व्यथादायी रोग भी (न आदधर्षति) उन पर अपना ज़ोर नहीं दिखाता। (याभिः) जिन इन्द्रियों के सामर्थ्यों से (देवान्) देवों इन इन्द्रियों के दिव्य सामर्थ्यों की (यजते) साधना करता या संगति करता और (ददाति च) सत्पात्र में दान करता है वह (गोपतिः) गो अर्थात् इन्द्रियों का परिपालक जितेन्द्रिय पुरुष (ताभिः सह) उनके साथ ही (सचते) सदा बना रहता है। अर्थात् जिन इन्द्रियों अर्थात् आत्मा की शक्तियों से योगी साधना करता है वे शक्तियां मोक्ष में बराबर बनी रहती हैं, उन का नाश नहीं होता, वहां जरा, मृत्यु भी नहीं और न रोग है।
टिप्पणी
स्वर्गे लोके न भयं किंचनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति। उभे तीर्खा अशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ (क० उप० १। १२)
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गौदेवताः। २-४ जगत्यः, १, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Cows
Meaning
Knowledge, fruits of yajna, generosity, patronage of learning and culture, these are holy cows. Like light rays they do not perish, nor deplete, nor fade away. Thief steals them not, no enemy can afflict them, nor can anyone injure or insult them. The master of these cows, lights and radiations, with which and for which he serves the divinities, the learned and the wise, creates, gives and adds to the beauty of life and he too lives, lasts and constantly rises with them.
Translation
Let not the cows run away from us, let no thief carry them away; let no hostile weapon fall upon them. May the master of the cattle be long possessed of them, with the milk products of which he makes offerings and with which he serves the godly men. (Also Rg. VI.28.3)
Translation
These cows be never lost, let not thieve overcome them and let not the enemy harass them. Let the master of the Cows live a long life with these cows with whose milk and ghee the performer of Yajna, offers obtains for the devas of yajna and perform it.
Translation
These are ne’er lost, no robber ever injures them; no evil-minded foe attempts to harass them. The master of the trine lives a long life with these, the cows with whose milk he performs the yajna to purify the forces of nature, and whom he gives in charity.
Footnote
These: Cows.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(न) नहि (ताः) गावः। विद्याः (नशन्ति) णश अदर्शने, श्यनः शप्। नश्यन्ति (दभाति) दम्भु दम्भे=वञ्चने, छान्दसं रूपम्। दम्भयति दभ्नोति वञ्चति ताः तस्करः अ० ४।३।२। उपतापकरः। चोरः (आसाम्) गवाम्। विद्यानाम् (आमित्रः) अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति आङ्+अम पीडने-इत्रच्। आ समन्ताद् आमयति पीडयतीति सः। शत्रुः (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति व्यथ भयसंचलनयोः-इन्। व्यथाजनको दुष्टः (आ दधर्षति) धृष प्रहसने। आधर्षति आधर्षणं प्रहसनं तिरस्कारं करोति (देवान्) दिव्यगुणान् (च) (याभिः) गोभिः। विद्याभिः (यजते) पूजयति (ददाति) प्रयच्छति (च) (ज्योक्) निरन्तरम् (इत्) (ताभिः) गोभिः। विद्याभिः (सचते) समवैति (गोपतिः) गवां विद्यानां स्वामी। वाचस्पतिः (सह) सहितः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal