अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
यू॒यं गा॑वो मेदयथा कृ॒शं चि॑दश्री॒रं चि॑त्कृणुथा सु॒प्रती॑कम्। भ॒द्रं गृ॒हं कृ॑णुथ भद्रवाचो बृ॒हद्वो॒ वय॑ उच्यते स॒भासु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयू॒यम् । गा॒व: । मे॒द॒य॒थ॒ । कृ॒शन् । चि॒त् । अ॒श्री॒रम् । चि॒त् । कृ॒णु॒थ॒ । सु॒ऽप्रती॑कम् । भ॒द्रम् । गृ॒हम् । कृ॒णु॒थ॒ । भ॒द्र॒ऽवा॒च॒: । बृ॒हत् । व॒: । वय॑: । उ॒च्य॒ते॒ । स॒भासु॑ ॥२१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्। भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय उच्यते सभासु ॥
स्वर रहित पद पाठयूयम् । गाव: । मेदयथ । कृशन् । चित् । अश्रीरम् । चित् । कृणुथ । सुऽप्रतीकम् । भद्रम् । गृहम् । कृणुथ । भद्रऽवाच: । बृहत् । व: । वय: । उच्यते । सभासु ॥२१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
विद्या के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(गावः) हे विद्याओ ! (यूयम्) तुम (कृशम्) दुर्बल से (चित्) भी, (अश्रीरम्) श्रीरहित निर्धन से (चित्) भी (मेदयथ) स्नेह करती हो और (सुप्रतीकम्) बड़ी प्रतीतिवाला वा बड़े रूपवाला (कृणुथ) बना देती हो। (भद्रवाचः) हे कल्याणी विद्याओ ! (गृहम्) घर को (भद्रम्) मङ्गलमय (कृणुथ) कर देती हो, (सभासु) विद्वानों से प्रकाशमान सभाओं में (वः) तुम्हारा ही (वयः) बल (बृहत्) बड़ा (उच्यते) बखाना जाता है ॥६॥
भावार्थ
विद्या से दुर्बल मनुष्य सबल, और निर्धन बड़ा विश्वासी और रूपवान् होता है, विद्वानों के घर में सदा आनन्द रहता, और विद्वानों की ही राज सभा और पंचायतों में बड़ाई होती है ॥६॥
टिप्पणी
६−(यूयम्) (गावः) हे विद्याः (मेदयथ) ञिमिदा स्नेहने-णिच्। स्नेहयथ। आप्याययथ (कृशम्) अनुपसर्गात् फुल्लक्षीबकृशोल्लाघाः। पा० ८।२।५५। इति कृश तनूकरणे-क्तप्रत्ययान्तो निपात्यते। क्षीणं निर्बलम् (चित्) अपि (अश्रीरम्) रो मत्वर्थीयः। अश्रीयुक्तम्। निर्धनम्। अमङ्गलम् (कृणुथ) कुरुथ (सुप्रतीकम्) अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति सु+प्र+इण् गतौ-कीकन्, धातोस्तुट्च। शोभनप्रतीतिवन्तम्। शोभनावयवम्। सुरूपम् (भद्रम्) कल्याणकरम् (गृहम्) गेहम् (भद्रवाचः) हे शोभना वाचो विद्याः (बृहत्) महत् (वः) युष्माकम् (वयः) अ० २।१०।३। यौवनम्। बलम् (उच्यते) प्रशस्यते। (सभासु) सह+भा दीप्तौ-अङ्, टाप्, सहस्य सः। विद्वद्भिः प्रकाशमानासु परिषत्सु ॥
विषय
बृहद् वयः [गोदुग्ध-एक पूर्ण भोजन]
पदार्थ
१. हे (गाव:) = गौओ! (यूयम्) = तुम (कृशं चित्) = दुर्बल शरीरवाले को भी (मेदयथ) = दूध-दही आदि से आप्यायित करके मोटा बना देती हो। (अश्रीरं चित्) = अनौक-अशोभन अङ्गोंवाले पुरुष को भी (सप्रीकम्) = शोभन अवयवोंवाला (कृणुथ) = करती हो। २.हे (भद्रवाच:) = कल्याणी वाणीवाली गौओ! (गृहं भद्रं कृणुथ) = हमारे घर को कल्याणयुक्त करो। (सभासु) = सभाओं में (व:) = आपका (वय:) = दुग्ध-दधि लक्षण अन्न (बृहत् उच्यते) = खूब ही प्रशंसित होता है। वस्तुतः यह गोदुग्ध व दधिरूप भोजन एक पूर्ण भोजन है।
भावार्थ
गौएँ दूध-दही आदि द्वारा कृश को सबल व अशोभन को शोभन अंगोंवाला बनाती हैं। इनकी वाणी घर को मंगलमय बनाती है। इनका दूध व दही पूर्ण व प्रशस्त भोजन है।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( गावः ) = हे गौओ या विद्याओ! ( यूयम् ) = तुम ( कृशम् ) = दुर्बल से ( चित् ) = भी ( अश्रीरम् चित् ) = धन रहित से ( मेदयथा ) = स्नेह करती और पुष्ट करती हो । ( सुप्रतीकम् कृणुथ ) = बड़ी प्रतीतिवाला वा बड़े रूपवाला बना देती हो । ( भद्रं वाच: ) = शुभ बोलनेवाली गौओ ! और कल्याण करनेवाली विद्याओ! ( गृहम् ) = घर को और हृदय को ( भद्रम् कृणुथ ) = सुखी और मंगलमय कर देती हो ( सभासु ) = सभाओं में ( वः ) = तुम्हारा ही ( वयः ) = बल ( बृहद् ) = बड़ा ( उच्यते ) = बखाना जाता है।
भावार्थ
भावार्थ = गौ का दूध घृतादि सेवन कर के पुरुष सबल और विद्या से भी दुर्बल पुरुष सबल हो जाता है और निर्धन पुरुष भी गौ, विद्या की कृपा से धनवान् ओर रूपवान् हो जाता है। विद्वानों के घर में सदा आनन्द रहता है और गौवालों के घर में सदा आनन्द रहता है । विद्वानों की और गौवालों की सभा समाजों में बड़ाई होती है ।
विषय
गार्हपथ्य अग्नि
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
तो आओ, मेरे प्यारे! आज मैं तुम्हें विशेष चर्चाओं में ले जाना नहीं चाहता हूँ मुझे इस संसार की बहुतसी वार्त्ताएं स्मरण आती रहती है। परन्तु उन वार्त्ताओं में, नाना प्रकार के ज्ञान और विज्ञान की चर्चाएं भी हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में होती रही है। आज मैं तुम्हें ज्ञान और विज्ञान में न ले जाता हुआ और महर्षि रोहिणीकेतु बेटा! ये तीनों ऋषि महाराज प्रजापति के यहाँ, याग करने के लिए पहुंचे और जब वहाँ याग करने के पश्चात पूर्णता को प्राप्त करके जब यह अपने आश्रम में आये, तो बेटा! महर्षि वैशम्पायन अपने आसन पर विद्यमान थे, परन्तु सायंकाल का समय हो गया, अपनी निंद्रा की गोद में चले गये, स्वप्न होता है। ऐसे ही वेद के मन्त्र में बेटा! उनके स्वप्नवत में एक ध्वनि आने लगी, वह उच्चारण कर रही थी रथं दिव्यां गतं प्रमाणा यजूँषि देवं द्यौ लोकाः बेटा! यह वेद का मन्त्र कह रहा था, कि रथं द्यौ जब्रणा द्यौ लोकाः मानो देखो, यज्ञमान जब यज्ञशाला में विद्यमान होता है और होता गण होते है परन्तु जब वे स्वाहा उच्चारण करते है जिन ग्रहों में स्वर्ग और नरको की कल्पना की जाती है तो ऋषि मुनियों ने बेटा! बहुत ऊँची कल्पना की, उन्होंने कहा कि जिस गृह में मानो एक दूसरे के विचारों में परस्पर विवाद रहता है मानो देखो, वह नारकिक समाज रहता है। और जिस गृह में पति पत्नी, गृह पति बेटा! सब एक दूसरे से प्रसन्न रहते है सन्तुष्ट रहते है और दर्शनों का चलन होता है तो बेटा! वह गृह स्वर्ग के तुल्य माना गया है। इसी प्रकार बेटा! यह जो ब्रह्माण्ड है मानो इसमें तुम शब्दों को भरण करते हो, तुम्हारे मानो वाणी के द्वारा, शब्दों के द्वारा, आचरणों के द्वारा यह वायुमण्डल का निर्माण होता है बेटा! मेरे प्यारे! यह मैं नहीं कह रहा हूँ, आज का वेदमन्त्र कहता रहता है।
बेटा! वेद का आचार्य कहता है, कि द्वितीय गृहपथ्य नाम की जो अग्नि है, उसमें माता और पिता ब्रहे दम्पती दोनों तपते रहते है। मानो वह तपायमान हो करके मानो देखो, गृह को ऊँचा बना देती है। पति पत्नी गृह में वास करते है, प्रातःकालीन याग कर रहे है, प्रातःकालीन ब्रह्म याग हो रहा है, प्रातःकालीन देखो, स्वरों की ध्वनियाँ हो रही हैं, वेद मन्त्रों की ध्वनियाँ हो रही हैं, माता पिता के उस चलन को, बाल्य, बालिका श्रवण कर रहे है बाल्य, बालिकाओं में संस्कार आ रहे है और बाल्य, बालिका बेटा! पवित्र हो करके, गृह को स्वर्ग बनाते है। माता पिता प्रसन्न होते है, क्या हमारा गृह कितना आनन्दमयी है। परन्तु देखो, जब माता पिता दोनों चलन करते है, दोनों ध्वनियों में गान गाते है प्रभु का, अपने प्रभु को अपने में स्मरण करते है बेटा! उनका अनुसरण करने वाली उनकी सन्तान होती हैं। वह मानो देखो, स्वर्ग के गामी बनते है। विचार क्या, इस गृहपथ्य नाम की अग्नि का पूजन करने वाला ही बेटा! तरंगवादी बन जाता है। तरंगों को ओत प्रोत करा देता है तरंगे मानो देखो, तरंगित हो करके मानव अपने में महान बनता रहता है।
भाषार्थ
(गाव) हे गौओ! (यूयम्) तुम (कृशम् चित्) कमजोर को भी (मेदयथा) मोटा कर देती हो, (अश्रीरम्, चित्) शोभा से रहित को भी (सुप्रतीकम्) उत्तम शोभायुक्त अवयवोंवाला (कृणुथ) कर देती हो। (भद्रवाचः) कल्याणकारिणी तथा सुखप्रद आवाजों [रम्भा रव] वाली हे गौओ! तुम (गृहम्) घर को (भद्रम्) कल्याणकारी तथा सुखप्रद (कृणुथ) कर देती हो, (व: वय:) तुम्हारा अन्न (सभासु) सभाओं में (बृहत्) महत्त्वशाली या वृद्धिकारक (उच्यते) कहा जाता है।
टिप्पणी
[भद्रम्= भदि कल्याणे सुखे च (भ्वादिः)। वयः अन्ननाम (निघं० २।७); दूध, दधि, घृत, आदि। मेदयथ= मिदि स्नेहने (चुरादिः)। बृहत्= वृह, वृद्धौ (भ्वादिः)।]
विषय
गो-कीर्तन।
भावार्थ
गौओं के दूध के गुणों का उपदेश। हे (गायः) गौओ ! (यूपं) तुम (कृशं) कृश निर्बल, दुबले पतले आदमी को (मेदवथ) मोटा कर देती हो। और (अश्नीरं चित्) कुरूप, शोभा रहित पुरुष को (सुप्रतीकं) सुन्दर, दर्शनीय (कृणुथ) कर देती हो। हे (भद्रवाचः) कल्याण और सुखदायी वाणी को बोलने वाली गौओ ! तुम लोग (गृहं) घर को भी (भद्रं कृणुत) सुखकारी बनाती हो। (वः) तुम्हारी (वयः) क्षीर, दधि आदि अन्न, भोज्य पदार्थ की प्रशंसा (सभासु) सभात्रों में (उच्यते) की जाती हैं। उसी प्रकार ये इन्द्रियां सूक्ष्म अणु आत्मा को स्थूल करती हैं, अरूप को सरूप करती और भद्रवाणियां उच्चारण करती हुईं स्त्रियों के तुल्य इस गृहरूप देह को सुखकारी बनातीं और इनके ग्राह्य विषयों को सभाओं में नाना प्रकार से वर्णन किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गौदेवताः। २-४ जगत्यः, १, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Cows
Meaning
O cows, mother spirits of the nation’s body, mind and soul, give health and vigour to the weak, turn the ugly to beauty and grace. O people, make the home overflow with peace, prosperity and the bliss of good fortune. You command noble speech and your life and work is praised in the assemblies of the wise.
Translation
O cows, even when worn out and wasted, you fatten (in due course); you from ugly appearance, become beautiful to look on. May you make my home prosperous, may you have auspicious voices. Your power and position is magnified in our assemblies and associations (sabhasu).
Translation
Let these cows fatten the man who is feeble and deprived of all bodily glamours and make him beautiful. Let these cows with auspicious voices prosper my home and let their power and utility be magnified in our assemblies.
Translation
O cows your milk fattens even the worn and wasted and makes the ugly beautiful to look on. Your auspicious voices lend prosperity to my home. The efficacy of your milk and curd is highly spoken of in our assemblies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यूयम्) (गावः) हे विद्याः (मेदयथ) ञिमिदा स्नेहने-णिच्। स्नेहयथ। आप्याययथ (कृशम्) अनुपसर्गात् फुल्लक्षीबकृशोल्लाघाः। पा० ८।२।५५। इति कृश तनूकरणे-क्तप्रत्ययान्तो निपात्यते। क्षीणं निर्बलम् (चित्) अपि (अश्रीरम्) रो मत्वर्थीयः। अश्रीयुक्तम्। निर्धनम्। अमङ्गलम् (कृणुथ) कुरुथ (सुप्रतीकम्) अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति सु+प्र+इण् गतौ-कीकन्, धातोस्तुट्च। शोभनप्रतीतिवन्तम्। शोभनावयवम्। सुरूपम् (भद्रम्) कल्याणकरम् (गृहम्) गेहम् (भद्रवाचः) हे शोभना वाचो विद्याः (बृहत्) महत् (वः) युष्माकम् (वयः) अ० २।१०।३। यौवनम्। बलम् (उच्यते) प्रशस्यते। (सभासु) सह+भा दीप्तौ-अङ्, टाप्, सहस्य सः। विद्वद्भिः प्रकाशमानासु परिषत्सु ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
য়ূয়ং গাবো মেদয়থা কৃশং চিদশ্রীরং চিৎকৃণুথা সুপ্রতীকম্ ।
ভদ্রং গৃহং কৃণুথ ভদ্রবাচো বৃহদ্ বোবয় উচ্যতে সভাসু।। ৯৯।।
(অথর্ব ৪।২১।৬)
পদার্থঃ (গাবঃ) হে গো অথবা বিদ্যা! (য়ূয়ম্) তোমরা (কৃশন্ চিৎ) দুর্বল এবং (অশ্রীরম্ চিৎ) ধন রহিত ব্যক্তিদেরও (মেদয়থ) স্নেহ করো এবং তাদের পুষ্ট করো। তাদের (সুপ্রতীকম্ কৃণুথ) উত্তম জ্ঞানবান অথবা উত্তম রূপবান বানিয়ে দাও। (ভদ্রবাচঃ) শুভবাচী গো এবং কল্যাণকারী বিদ্যা (গৃহম্) গৃহ এবং হৃদয়কে (ভদ্রম্ কৃণুথ) সুখী এবং মঙ্গলময় করে দেয়। (সভাসু) সভাতে (বঃ) তোমাদেরই (বয়ঃ) বল এবং (বৃহদ্) মহত্ত্বের (উচ্যতে) কথা প্রচারিত হয়।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ গরুর দুগ্ধ, ঘৃতাদি সেবন করে মানুষ শারীরিকভাবে সবল হতে পারে। অপরদিকে বিদ্যা দ্বারা দুর্বল পুরুষও জ্ঞানে সবল হতে পারে৷ একইভাবে নির্ধন পুরুষও গো পালন এবং বিদ্যা অর্জনের মাধ্যমে ধনবান এবং উত্তম স্বাস্থ্যসম্পন্ন রূপবান হতে পারে। এজন্য বিদ্বানদের ঘরে এবং গো পালনকারীদের ঘরে সর্বদা আনন্দ বিরাজ করে। বিদ্বান ও গো সম্পন্ন ধনবানদের সভা ও সমাজে অগ্রগণ্য হিসেবে অন্যরা মান্য করে ।।৯৯।।
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