अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः। मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽव॑ती: । सु॒ऽयव॑से । रु॒शन्ती॑: । शु॒ध्दा: । अ॒प: । सु॒ऽप्र॒पा॒ने । पिब॑न्ती: । मा । व॒: । स्ते॒न: । ई॒श॒त॒ । मा । अ॒घऽशं॑स: । परि॑ । व॒: । रु॒द्रस्य॑ । हे॒ति: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजावतीः सूयवसे रुशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः। मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽवती: । सुऽयवसे । रुशन्ती: । शुध्दा: । अप: । सुऽप्रपाने । पिबन्ती: । मा । व: । स्तेन: । ईशत । मा । अघऽशंस: । परि । व: । रुद्रस्य । हेति: । वृणक्तु ॥२१.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्या के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यप्रजाओ !] (प्रजावतीः) उत्तम सन्तानवाली, (सुयवसे) सुन्दर यव आदि अन्नवाले [घर] में [अन्न] (रुशन्तीः) खाती हुईं, और (सुप्रपाणे) सुन्दर जलस्थान में (शुद्धाः) शुद्ध (अपः) जलोंको (पिबन्तीः) पीती हुईं (वः) तुमको (स्तेनः) चोर (मा ईशत) वश में न करे, और (मा) न (अघशंसः) बुरा चीतनेवाला, डाकू उचक्का आदि [वश में करे]। (रुद्रस्य) पीड़ानाशक परमेश्वर की (हेतिः) हननशक्ति (वः) तुमको (परि) सब ओर से (वृणक्तु) त्यागे रहे ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य विद्याएँ उपार्जन करके अपनी सन्तानों को उत्तम शिक्षा देते हुए और अन्न जल आदि का सुप्रबन्ध करते हुए सदा हृष्ट पुष्ट बुद्धिमान् और धर्मिष्ठ रहें, जिससे उन्हें न चोर आदि सता सके और न परमेश्वर दण्ड देवे ॥७॥ (मा व स्तेन इति) यह पाद य० १।१ और (परि वो रुद्रस्येति) यह पाद य० १६।५०। में है ॥
टिप्पणी
७−(प्रजावतीः) उत्तमसन्तानयुक्ताः [हे प्रजाः-इति शेषः] (सुयवसे) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। इति सु+यु मिश्रणामिश्रणयोः-असच्। शोभनानि यवाद्यन्नानि यस्मिन् तस्मिन् गृहे (रुशन्तीः) रुश हिंसायाम्-शतृ। अन्नं भक्षयन्तीः (शुद्धाः) निर्मलाः (अपः) जलानि (सुप्रपाणे) सुन्दरे जलपानस्थाने (पिबन्तीः) पानं कुर्वतीः (वः) युष्मान् (स्तेनः) चोरः (व स्तेन) खर्परे शरि वा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ८।३।३६। इति विसर्गलोपः। (मा ईशत) मा ईशिष्ट। अधिकारे वशे न करोतु (मा) मा ईशत (अघशंसः) अघ पापकरणे-पचाद्यच्, शसि इच्छायाम्-अच्। अघं पापं शंसति इच्छतीति यः। अनिष्टचिन्तकः (परि) सर्वतः (वः) युष्मान् (रुद्रस्य) रुद्+रस्य। रुदिर् अश्रुविमोचने-क्विप, इति रुत् पीडा। रुङ् गतिहिंसनयोः-ड। रुदं पीडां रवते नाशयतीति रुद्रः, तस्य दुःखनाशकस्य परमेश्वरस्य (हेतिः) ऊतियूतिजूति०। पा० ३।३।९७। इति हन वधे क्तिन्। हन्यते ताड्यते अनया। हननशक्तिः (वृणक्तु) वृजी वर्जने। वर्जयतु। त्यजतु ॥
विषय
शुद्ध चारा व शुद्ध जल
पदार्थ
१. हे गौओ! (प्रजावती:) = उत्तम बछड़ी-बछड़ोंवाली (सूयवसे) = शोभन तृणयुक्त देश में (रुशन्ती:) = चमकती हुई, अर्थात् प्रसन्नता से तृणों को खाती हुई तथा (सुप्रपाणे) = शोभन अवतरण मार्ग से युक्त तालाब आदि में (शद्धा:) = निर्मल (अपः) = जलों को (पिबन्ती:) = पीती हुई इन (वः) = तुम गौओं को (स्तेनः) = चोर (मा ईशत) = चुराने में समर्थ न हो। २. (अघशंस:) = वधलक्षण पाप की कामनावाला पुरुष भी इन गौओं का ईश न हो। (रुद्रस्य) = ज्वराभिमानी देव का (हेती:) = आयुध भी (व:) = तुम गौओं को (परिवृणक्तु) = दूर से ही छोड़नेवाला हो, अर्थात् ये गौएँ किसी रोग से भी आक्रान्त न हो जाएँ।
भावार्थ
गौओं को शुद्ध चारा व शुद्ध जल प्राप्त हो। इन्हें न कोई चुरा सके, न मार सके और न ये रोगाक्रान्त हों।
विशेष
गोदुग्धों का प्रयोग करता हुआ यह 'वसिष्ठ' अत्यन्त उत्तम निवासवाला व 'अथर्वा' स्थिर वृत्तिवाला [न डॉवाडोल] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है
भाषार्थ
(प्रजावतिः) बछड़े-बछड़ियोंवाली, (सूयवसे) उत्तम घासवाले प्रदेश में (रुशन्ती:) चमकती या शोभावाली, (सु प्रपाणे) उत्तम पेयस्थलों में (शुद्धाः अपः) शुद्ध जल को (पिबन्ती:) पीती हुई (वः) तुम्हें (स्तेनः) चोर (मा ईशत) चुराने में अधिकारयुक्त न हो, (मा अघशंसः) न हत्यारा तुम्हारा अधीश्वर बने, (रुद्रस्य) रौद्रकर्मवाले मनुष्य का (हेतिः) अस्त्र (व:) तुम्हारा (परि वृणक्तु) परिवर्जन करे, तुम पर न गिरे।
टिप्पणी
[स्तेनः (मन्त्र ३; तस्करः)।]
विषय
गो-कीर्तन।
भावार्थ
(सुयवसे) उत्तम तृण आदि चारा से युक्त देश में (रुशन्तीः) शोभा देती हुई, तृणादि खाती हुई (प्रजावतीः) प्रजा, उतम सन्तति से युक्त (सु-प्रपाणे) उत्तम जल-पान करने के स्थान में (शुद्धाः अपः) शुद्ध जलों का (पिबन्तीः) पान करती हुई (वः) तुम गौओं को (स्तेनः) चोर (मा ईशत) न चुरा ले और (अघशंसः) पापकर्मा, पापी पुरुष भी तुम पर वश न करे। (रुद्रस्य हेतिः) रुद्र परमेश्वर का या पशुपालक का (हेतिः) आयुध, वज्र (वः) तुम्हें (परि वृणक्तु) छोड़ दे। अर्थात् रौद्र-जन का शस्त्र तुम पर न गिरे। अध्यात्म पक्ष में—सुयवस = भोग्य विषय में विचरती एवं आनन्द स्थलों में शुद्ध रसों को प्राप्त करती हुई इन सन्तान युक्त इन्द्रियों और घर में स्त्रियों पर स्तेन = चोर, काम, अघशंस = क्रोध वश न करे। रुद्ररूप परमेश्वर की दण्ड-व्यवस्था से भय खाकर वे पापवृत्तियों से सदा दूर रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गौदेवताः। २-४ जगत्यः, १, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Cows
Meaning
O fertile and abundant cows blest with progeny, feeding on fine green grass and drinking pure water from clear pools, may no thief, no sinner, ever rule over you, may no strike of the cruel butcher ever slaughter you.
Translation
May you, O cows, have many calves grazing upon good pastures and drinking pure water at accessible ponds. May no thief be your master. May no beast of prey assail you and may the dart of vital Lord (rudrasya hetih) never fall on you:
Translation
Let these cows grazing in the nice pasture, bearing good progeny, drinking pure water in the drinking place, be ever happy. Thief and sinful man never be their master and let the weapon of Rudra, the fire creating epidemic diseases of animal leave them safe.
Translation
O Cows, may you be prolific, grazing in green meadows, and drinking, pure water at fair drinking places, may never a thief or an evil-minded tiger be your master. May God's power of destruction always protect you.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(प्रजावतीः) उत्तमसन्तानयुक्ताः [हे प्रजाः-इति शेषः] (सुयवसे) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। इति सु+यु मिश्रणामिश्रणयोः-असच्। शोभनानि यवाद्यन्नानि यस्मिन् तस्मिन् गृहे (रुशन्तीः) रुश हिंसायाम्-शतृ। अन्नं भक्षयन्तीः (शुद्धाः) निर्मलाः (अपः) जलानि (सुप्रपाणे) सुन्दरे जलपानस्थाने (पिबन्तीः) पानं कुर्वतीः (वः) युष्मान् (स्तेनः) चोरः (व स्तेन) खर्परे शरि वा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ८।३।३६। इति विसर्गलोपः। (मा ईशत) मा ईशिष्ट। अधिकारे वशे न करोतु (मा) मा ईशत (अघशंसः) अघ पापकरणे-पचाद्यच्, शसि इच्छायाम्-अच्। अघं पापं शंसति इच्छतीति यः। अनिष्टचिन्तकः (परि) सर्वतः (वः) युष्मान् (रुद्रस्य) रुद्+रस्य। रुदिर् अश्रुविमोचने-क्विप, इति रुत् पीडा। रुङ् गतिहिंसनयोः-ड। रुदं पीडां रवते नाशयतीति रुद्रः, तस्य दुःखनाशकस्य परमेश्वरस्य (हेतिः) ऊतियूतिजूति०। पा० ३।३।९७। इति हन वधे क्तिन्। हन्यते ताड्यते अनया। हननशक्तिः (वृणक्तु) वृजी वर्जने। वर्जयतु। त्यजतु ॥
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