Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 26

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
    सूक्त - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - पुरोऽष्टिर्जगती सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    म॒न्वे वां॑ द्यावापृथिवी सुभोजसौ॒ सचे॑तसौ॒ ये अप्र॑थेथा॒ममि॑ता॒ योज॑नानि। प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्वे । वा॒म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । सु॒ऽभो॒ज॒सौ॒ । सऽचे॑तसौ । ये इति॑ । अप्र॑थेथाम् । अमि॑ता । योज॑नानि ।प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे । हि । अभ॑वतम् । वसू॑नाम । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्वे वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ सचेतसौ ये अप्रथेथाममिता योजनानि। प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्वे । वाम् । द्यावापृथिवी इति । सुऽभोजसौ । सऽचेतसौ । ये इति । अप्रथेथाम् । अमिता । योजनानि ।प्रतिस्थे इति प्रतिऽस्थे । हि । अभवतम् । वसूनाम । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सुभोजसौ) हे उत्तम भोग देनेवाली वा पालन करनेवाली (सचेतसौ) समान ज्ञान करानेवाली (द्यावापृथिवी) सूर्य पृथिवी ! (वाम्) तुम दोनों का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, (ये) जिन तुम दोनों ने (अमिता) अगणित (योजनानि) संयोग कर्मों को (अप्रथेथाम्) प्रसिद्ध किया है और (हि) अवश्य ही (वसूनाम्) धनों की (प्रतिष्ठे) आधार (अभवतम्) हुई हो। (ते) वे तुम दोनों (वः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥१॥

    भावार्थ - सूर्य और पृथिवी के परस्पर आकर्षण से अन्न, धन और अनेक संयोग-वियोग क्रियाएँ प्रकट होती हैं। मनुष्य उनके गुणों का यथावत् उपयोग करके आनन्द भोगें ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top