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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    सूक्त - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    ये की॒लाले॑न त॒र्पय॑न्ति॒ ये घृ॒तेन॒ ये वा॒ वयो॒ मेद॑सा संसृ॒जन्ति॑। ये अ॒द्भिरीशा॑ना म॒रुतो॑ व॒र्षय॑न्ति॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । की॒लाले॑न । त॒र्पय॑न्ति । ये । घृ॒तेन॑ । ये । वा॒ । वय॑: । मेद॑सा । स॒म्ऽसृ॒जन्ति॑ । ये । अ॒त्ऽभि: । ईशा॑ना: । म॒रुत॑: । व॒र्षय॑न्ति । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये कीलालेन तर्पयन्ति ये घृतेन ये वा वयो मेदसा संसृजन्ति। ये अद्भिरीशाना मरुतो वर्षयन्ति ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । कीलालेन । तर्पयन्ति । ये । घृतेन । ये । वा । वय: । मेदसा । सम्ऽसृजन्ति । ये । अत्ऽभि: । ईशाना: । मरुत: । वर्षयन्ति । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (ये) जो [मरुद्गण] (वयः) जीवन को (कीलालेन) अन्न से और (ये) जो (घृतेन) जल से (तर्पयन्ति) तृप्त करते हैं, (वा) और (ये) जो (मेदसा) मेदा अर्थात् चर्बी से (संसृजन्ति) संयुक्त करते हैं। और (ये) जो (ईशानाः) समर्थ (मरुतः) वायुगण (अद्भिः) जल से [प्राणियों को] (वर्षयन्ति) सींचते हैं। (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥५॥

    भावार्थ - वायुवेग द्वारा अन्न, जल मिलकर शरीररक्षा के लिये रक्त अस्थि आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं। उन वायुगणों के गुणों से हम सदा स्वस्थ और पुष्ट रहें ॥५॥

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