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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - जगती सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त

    अ॒हं सोम॑माह॒नसं॑ बिभर्म्य॒हं त्वष्टा॑रमु॒त पू॒षणं॒ भग॑म्। अ॒हं द॑धामि॒ द्रवि॑णा ह॒विष्म॑ते सुप्रा॒व्या॑ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । सोम॑म् । आ॒ह॒नस॑म् । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । त्वष्टा॑रम् । उ॒त । पू॒षण॑म् । भग॑म् । अ॒हम् । द॒धा॒मि॒ । द्रवि॑णा । ह॒विष्म॑ते । सु॒प्र॒ऽअ॒व्या᳡ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥३०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्। अहं दधामि द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । सोमम् । आहनसम् । बिभर्मि । अहम् । त्वष्टारम् । उत । पूषणम् । भगम् । अहम् । दधामि । द्रविणा । हविष्मते । सुप्रऽअव्या । यजमानाय । सुन्वते ॥३०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (अहम्) मैं (आहनसम्) प्राप्तियोग्य (सोमम्) ऐश्वर्य को (अहम्) मैं (त्वष्टारम्) रसों के छिन्न-भिन्न करने हारे सूर्य को (उत) और (पूषणम्) पोषण करने हारी पृथिवी को और (भगम्) सेवनीय चन्द्रमा को (बिभर्भि) धारण करता हूँ। (अहम्) मैं (हविष्मते) भक्ति रखनेवाले, (सुन्वते) विद्यारस का निचोड़ करने हारे (यजमानाय) देवताओं की पूजा वा संगति करनेहारे पुरुष को (सु प्राव्या=०-णि) सुन्दर सुन्दर रक्षा योग्य (द्रविणा) अनेक धन (दधामि) देता हूँ ॥६॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने अनेक प्रकार के ऐश्वर्य और सूर्य आदि बड़े उपकारी पदार्थ रचे हैं। विद्वान् लोग विज्ञान द्वारा उनसे लाभ प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं ॥६॥

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