अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
द्विषो॑ नो विश्वतोमु॒खाति॑ ना॒वेव॑ पारय। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठद्विष॑: । न॒: । वि॒श्व॒त॒:ऽमु॒ख॒ । अति॑ । ना॒वाऽइ॑व । पा॒र॒य॒ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठद्विष: । न: । विश्वत:ऽमुख । अति । नावाऽइव । पारय । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
विषय - सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(विश्वतोमुख) हे सब ओर मुखवाले [मुख के समान, सर्वोपदेशक सर्वोत्तम] परमेश्वर ! (द्विषः) द्वेषियों को (अति=अतीत्य) लाँघ कर (नः) हमें (पारय) पार लगा, (नावा इव) जैसे नाव से [समुद्र को पार करते हैं]। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥७॥
भावार्थ - जैसे पोत द्वारा समुद्र पार करते हैं, वैसे ही मनुष्य परमेश्वर के आश्रय से सब दोषों को हटा कर सुखी रहें ॥७॥
टिप्पणी -
७−(द्विषः) द्वेष्टॄन् शत्रून् (नः) अस्मान् (विश्वतोमुख) म० ६। (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (नावा इव) यथा नौकया (पारय) पारं गमय। अन्यत्पूर्ववत् ॥