अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
स नः॒ सिन्धु॑मिव ना॒वाति॑ पर्षा स्व॒स्तये॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठस:। न॒: । सिन्धु॑म्ऽइव । ना॒वा । अति॑ । प॒र्ष॒ । स्व॒स्तये॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः सिन्धुमिव नावाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठस:। न: । सिन्धुम्ऽइव । नावा । अति । पर्ष । स्वस्तये । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 8
विषय - सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(सः) सो तू (नः) हमें (स्वस्तये) आनन्द के लिये (पर्ष) पार लगा, (इव) जैसे (नावा) नाव से (सिन्धुम्) समुद्र को (अति=अतीत्य) लाँघ कर [पार करते] हैं। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥८॥
भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर में निष्ठा करके पुरुषार्थपूर्वक दुःखसागर से पार होकर सुखी होवें, जैसे नाव के आश्रय से जलयात्री समुद्र पार करके प्रसन्न होते हैं ॥८॥
टिप्पणी -
८−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (सिन्धुम् इव) यथा समुद्रं तथा (नावा) नौकया (अति) अतीत्य (पर्ष) पॄ पालनपूर्णयोः, लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति−सिप्। पारं प्रापय। (स्वस्तये) आनन्दाय। अन्यत् पूर्ववत ॥