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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 100

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
    सूक्त - गरुत्मान ऋषि देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनिवारण का उपाय

    असु॑राणां दुहि॒तासि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑। दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः संभू॑ता॒ सा च॑कर्थार॒सं वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑राणाम् । दु॒हि॒ता । अ॒सि॒ । सा । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । स्वसा॑ । दि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । सम्ऽभू॑ता । सा । च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुराणां दुहितासि सा देवानामसि स्वसा। दिवस्पृथिव्याः संभूता सा चकर्थारसं विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असुराणाम् । दुहिता । असि । सा । देवानाम् । असि । स्वसा । दिव: । पृथिव्या: । सम्ऽभूता । सा । चकर्थ । अरसम् । विषम् ॥१००.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 100; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे ओषधि !] (असुराणाम्) श्रेष्ठ बुद्धिमानों की (दुहिता) कामनायें पूरी करनेवाली (असि) है, (सा) सो तू (देवानाम्) उत्तम गुणों की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली (असि) है। (दिवः) सूर्य से और (पृथिव्याः) पृथिवी से (संभूता) उत्पन्न हुई (सा) उस तुझ ने (विषम्) विष को (अरसम्) निर्बल (चकर्थ) कर दिया है ॥३॥

    भावार्थ - जैसे सूर्य के ताप और पृथिवी के संयोग से उत्पन्न औषधियों से उपकार होता है, वैसे ही मनुष्य परोपकार करके परस्पर लाभ उठावे ॥३॥

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