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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 101

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    सूक्त - च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥ देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त

    आ वृ॑षायस्व श्वसिहि॒ वर्ध॑स्व प्र॒थय॑स्व च। य॑था॒ङ्गं व॑र्धतां॒ शेप॒स्तेन॑ यो॒षित॒मिज्ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वृ॒ष॒ऽय॒स्व॒ । श्व॒सि॒हि । वर्ध॑स्व । प्र॒थय॑स्व । च॒ । य॒था॒ऽअ॒ङ्गम् । व॒र्ध॒ता॒म् । शेप॑: । तेन॑ । यो॒षित॑म् । इत् । ज॒हि॒ ॥१०१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वृषायस्व श्वसिहि वर्धस्व प्रथयस्व च। यथाङ्गं वर्धतां शेपस्तेन योषितमिज्जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । वृषऽयस्व । श्वसिहि । वर्धस्व । प्रथयस्व । च । यथाऽअङ्गम् । वर्धताम् । शेप: । तेन । योषितम् । इत् । जहि ॥१०१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे राजन् !] (आ) भले प्रकार (वृषायस्व) इन्द्र, बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष के समान आचरण कर, (श्वसिहि) जीता रह, (वर्धस्व) बढ़ती कर (च) और [हमें] (प्रथयस्य) फैला। (यथाङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग में [तेरा] (शेपः) सामर्थ्य (वर्धताम्) बढ़े, (तेन) इसलिये (योषितम्) सेवनीय नीति को (इत्) ही (जहि) तू प्राप्त हो ॥१॥

    भावार्थ - राजा पुरुषार्थपूर्वक अपनी और प्रजा की उन्नति में सदा तत्पर रहे ॥१॥ राज्य की बढ़ती के चार अङ्ग वा उपाय यह हैं [सामदाने भेददण्डावित्युपायचतुष्टम्−अमर १८।२०] १−साम, प्रियवचन, २−दान, धन देना, ३−भेद, शत्रुओं में फूट कर देना, ४−दण्ड ॥

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