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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 101

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्नगिरा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त

    येन॑ कृ॒षं वा॒जय॑न्ति॒ येन॑ हि॒न्वन्त्यातु॑रम्। तेना॒स्य ब्र॑ह्मणस्पते॒ धनु॑रि॒वा ता॑नया॒ पसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । कृ॒शम् । वा॒जय॑न्ति । येन॑ । हि॒न्वन्ति॑ । आतु॑रम् । तेन॑ । अ॒स्‍य । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । धनु॑:ऽइव । आ । ता॒न॒य॒ । पस॑: ॥१०१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन कृषं वाजयन्ति येन हिन्वन्त्यातुरम्। तेनास्य ब्रह्मणस्पते धनुरिवा तानया पसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । कृशम् । वाजयन्ति । येन । हिन्वन्ति । आतुरम् । तेन । अस्‍य । ब्रह्मण: । पते । धनु:ऽइव । आ । तानय । पस: ॥१०१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (येन) जिस कर्म से (कृशम्) दुर्बल को (वाजयन्ति) बली करते हैं और (येन) जिस से (आतुरम्) अशान्त पुरुष को (हिन्वन्ति) प्रसन्न करते हैं। (तेन) उसी कर्म से (ब्रह्मणस्पते) हे अन्न, वा धन, वा वेद वा ब्राह्मण के रक्षक परमेश्वर ! (अस्य) इसके (पसः) राज्य को (धनुः इव) धनुष के समान (आ) भले प्रकार (तानय) फैला ॥२॥

    भावार्थ - राजा निर्बल और रोगियों को यथावत् सुख देकर अपने राज्य को सदा बढ़ावे ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से आ चुका है−अ० ४।४।६ ॥

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