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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 108

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 108/ मन्त्र 5
    सूक्त - शौनक् देवता - मेधा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मेधावर्धन सूक्त

    मे॒धां सा॒यं मे॒धां प्रा॒तर्मे॒धां म॒ध्यन्दि॑नं॒ परि॑। मे॒धां सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒र्वच॒सा वे॑शयामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मे॒धाम् । सा॒यम् । मे॒धाम् । प्रा॒त: । मे॒धाम् । म॒ध्यन्दि॑नम् । परि॑ । मे॒धाम् । सूर्य॑स्य ।‍ र॒श्मिऽभि॑: । वच॑सा । आ । वे॒श॒या॒म॒हे॒ ॥१०८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेधां सायं मेधां प्रातर्मेधां मध्यन्दिनं परि। मेधां सूर्यस्य रश्मिभिर्वचसा वेशयामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेधाम् । सायम् । मेधाम् । प्रात: । मेधाम् । मध्यन्दिनम् । परि । मेधाम् । सूर्यस्य ।‍ रश्मिऽभि: । वचसा । आ । वेशयामहे ॥१०८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 108; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (मेधाम्) शुभ गुणवाली बुद्धि वा सम्पत्ति को (सायम्) सायंकाल, (मेधाम्) शास्त्रादि विषयवाली बुद्धि वा सपत्ति को (प्रातः) प्रातःकाल, (मेधाम्) धर्म का स्मरण रखनेवाली बुद्धि वा सम्पत्ति को (मध्यन्दिनम् परि) मध्याह्न समय में, (मेधाम्) सत्य व्यवहारवाली बुद्धि वा संपत्ति को (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मिभिः) फैलनेवाली किरणों के साथ (वचसा) परस्पर बातचीत से (आ) भले प्रकार (वेशयामहे) हम स्थापित करते हैं ॥५॥

    भावार्थ - मनुष्य सोते, जागते, और कर्म करते धार्मिक बुद्धि और सम्पत्ति को सूर्य के प्रकाश के समान विस्तीर्ण करके आनन्द प्राप्त करें ॥५॥

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