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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 116

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
    सूक्त - जाटिकायन देवता - विवस्वान् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मधुमदन्न सूक्त

    वै॑वस्व॒तः कृ॑णवद्भाग॒धेयं॒ मधु॑भागो॒ मधु॑ना॒ सं सृ॑जाति। मा॒तुर्यदेन॑ इषि॒तं न॒ आग॒न्यद्वा॑ पि॒ताऽप॑राद्धो जिही॒डे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒व॒स्व॒त: । कृ॒ण॒व॒त् । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । मधु॑ऽभाग: । मधु॑ना । सम् । सृ॒जा॒ति॒ । मा॒तु: । यत् । एन॑: । इ॒षि॒तम् । न॒: । आ॒ऽअग॑न् । यत् । वा॒ । पि॒ता । अप॑ऽराध्द: । जि॒ही॒डे ॥११६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैवस्वतः कृणवद्भागधेयं मधुभागो मधुना सं सृजाति। मातुर्यदेन इषितं न आगन्यद्वा पिताऽपराद्धो जिहीडे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैवस्वत: । कृणवत् । भागऽधेयम् । मधुऽभाग: । मधुना । सम् । सृजाति । मातु: । यत् । एन: । इषितम् । न: । आऽअगन् । यत् । वा । पिता । अपऽराध्द: । जिहीडे ॥११६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 116; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मधुभागः) ज्ञान का भाग करनेवाला, (वैवस्वतः) मनुष्यों का स्वामी परमेश्वर (भागधेयम्) भाग (कृणवद्) करे और (मधुना) [उस पाप के] ज्ञान के साथ [हमें] (सम् सृजाति) संयुक्त करे। (मातुः) माता को प्राप्त करके (इषितम्) उतावली से किया हुआ (नः) हमारा (यत्) जो (एनः) पाप (आगन्) हो गया है, (वा) अथवा (यत्) जिस पाप के कारण (पिता) पिता, (अपराद्धः) जिसका हमने अपराध किया है, (जिहीडे) क्रोधित हुआ है ॥२॥

    भावार्थ - यदि मनुष्य प्रमाद के कारण माता-पिता आदि को अप्रसन्न करे तो वह उनसे क्षमा माँग कर प्रायश्चित्त करके शुद्ध होवे ॥२॥

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