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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रापूषणौ, अदितिः, मरुद्गणः, अपांनपात्, सिन्धुसमूहः, विष्णुः, द्यौः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त

    पा॒तं न॑ इन्द्रापूष॒णादि॑तिः पान्तु म॒रुतः॑। अपां॑ नपात्सिन्धवः स॒प्त पा॑तन॒ पातु॑ नो॒ विष्णु॑रु॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒तम् । न॒: । इ॒न्द्रा॒पू॒ष॒णा॒ । अदि॑ति: । पान्तु॑ । म॒रुत॑: । अपा॑म् । न॒पा॒त् । सि॒न्ध॒व॒: । स॒प्त । पा॒त॒न॒ । पातु॑ । न॒: । विष्णु॑: । उ॒त। द्यौ: ॥३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पातं न इन्द्रापूषणादितिः पान्तु मरुतः। अपां नपात्सिन्धवः सप्त पातन पातु नो विष्णुरुत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पातम् । न: । इन्द्रापूषणा । अदिति: । पान्तु । मरुत: । अपाम् । नपात् । सिन्धव: । सप्त । पातन । पातु । न: । विष्णु: । उत। द्यौ: ॥३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इन्द्रापूषणा) हे बिजुली और वायु (नः) हमें (पातम्) बचाओ। (अदितिः) अदीन प्रकृति और (मरुतः) विद्वान् लोग (पान्तु) बचावें। (अपाम्) हे जीवों के (नपात्) न गिरानेवाले, अग्नि [शरीर बल] और (सप्त) हे नित्य सम्बन्धवाले वा सात (सिन्धवः) गतिशील [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (पातन) बचाओ (विष्णुः) सर्वव्यापक परमेश्वर (उत) और (द्यौ) प्रकाशमान बुद्धि (नः) हमें (पातु) बचावे ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर के उपकारों को विचारता हुआ बिजुली आदि पदार्थों से उपकार लेकर रक्षा करें ॥१॥

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