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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शि॒श्रिय॑त्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिं॒शत् । धाम॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ । वाक् । प॒त॒ङ्ग: । अ॒शि॒श्रि॒य॒त् । प्रति॑ । वस्तो॑: । अह॑: । द्युऽभि॑: ॥३१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिंशद्धामा वि राजति वाक्पतङ्गो अशिश्रियत्। प्रति वस्तोरहर्द्युभिः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिंशत् । धाम । वि । राजति । वाक् । पतङ्ग: । अशिश्रियत् । प्रति । वस्तो: । अह: । द्युऽभि: ॥३१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
विषय - सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
(पतङ्गः) चलनेवाला वा ऐश्वर्यवाला सूर्य (त्रिंशत् धामा) तीस धामों पर [दिन रात्रि के तीस मुहूर्तों पर] (वस्तोः, अहः) दिन-दिन (द्युभिः) अपनी किरणों और गतियों के साथ (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (वि) विविध प्रकार (राजति) राज करता वा चमकता है, (वाक्) इस वचन ने [उस सूर्य में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥
भावार्थ - यह बात स्वयं सिद्ध है कि यह सूर्य सर्वदा सब ओर चमकता रह कर अपनी परिधि के लोकों को गमन, आकर्षण, विकर्षण, वृष्टि, शीत, ताप आदि द्वारा स्थिर रखता है ॥३॥ दिन रात्रि के तीस मुहूर्त भगवान् मनु ने भी माने हैं−अ० १ श्लोक ६४ ॥ निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला। त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ॥१॥ १८ पलक की १ काष्ठा, ३० काष्ठा की १ कला, ३० कला का १ मुहूर्त, और उतने ही, ३० मुहूर्त का दिन रात होता है ॥ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य यजुर्वेद ३।८॥− (द्युभिः) प्रकाश आदि गुणों से (प्रति वस्तोः, अहः) प्रतिदिन (त्रिंशत्) अन्तरिक्ष, आदित्य और अग्नि को छोड़ के पृथिवी आदि तीस (धाम) स्थानों को (पतङ्गः) चलनेवाला अग्नि (वि राजति) प्रकाशित करता है−(वाक्) इस वचन ने [उस अग्नि में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥ जो वाणी प्राणयुक्त शरीर में रहनेवाले बिजुली नाम अग्नि से प्रकाशित होती है विद्वान् लोग उसका गुण प्रकाश करने के लिये उसका नित्य उपदेश और श्रवण करें ॥३॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ६८ वेदविषय में तैंतीस देवता इस प्रकार लिखे हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा और नक्षत्र, ११ ग्यारह रुद्र अर्थात् शरीरस्थ दश प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाम, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और ग्यारहवाँ जीवात्मा, १२ आदित्य वा महीने, १ इन्द्र अर्थात् बिजुली, और १ प्रजापति अर्थात् यज्ञ। उक्त मन्त्र में उनमें से ऊपर लिखे तीन को छोड़ कर तीस देवताओं का ग्रहण है ॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी -
३−(त्रिंशत् धामा) अहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्ताख्यानि धामानि स्थानानि (वि) विविधम् (राजति) अन्तर्गतण्यर्थः। राजयति शास्ति दीपयति वा (वाक्) वेदवाणी (पतङ्गः) पतेरङ्गच् पक्षिणि। उ० १।११९। इति पत गतौ ऐश्वर्ये च−अङ्गच्। गतिशीलः। ऐश्वर्यवान् (अशिश्रियत्) णिश्रिद्रुस्रुभ्यः०। पा० ३।१।४८। इति श्रिञ् सेवायाम्−लुङि च्लेश्चङ्। आश्रितवती (प्रति) प्रत्यक्षम् (वस्तोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। इति वस आच्छादने−कर्त्तरि तोसुन्। दिनम्−निघ० १।९। (अहः) दिनम् (द्युभिः) दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु−क्विप्। किरणैः। गतिभिः ॥