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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    सूक्त - चातन देवता - रुद्रः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - यातुधानक्षयण सूक्त

    रु॒द्रो वो॑ ग्री॒वा अश॑रैत्पिशाचाः पृ॑ष्टीर्वोऽपि॑ शृणातु यातुधानाः। वी॒रुद्वो॑ वि॒श्वतो॑वीर्या य॒मेन॒ सम॑जीगमत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒द्र: । व॒: । ग्री॒वा: । अश॑रैत् । पि॒शा॒चा॒: । पृ॒ष्टी: । व॒: । अपि॑ । शृ॒णा॒तु॒ । या॒तु॒ऽधा॒ना॒:। वी॒रुत् । व॒:। वि॒श्वत॑:ऽवीर्या । य॒मेन॑ । सम् । अ॒जी॒ग॒म॒त् ॥३२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुद्रो वो ग्रीवा अशरैत्पिशाचाः पृष्टीर्वोऽपि शृणातु यातुधानाः। वीरुद्वो विश्वतोवीर्या यमेन समजीगमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुद्र: । व: । ग्रीवा: । अशरैत् । पिशाचा: । पृष्टी: । व: । अपि । शृणातु । यातुऽधाना:। वीरुत् । व:। विश्वत:ऽवीर्या । यमेन । सम् । अजीगमत् ॥३२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (पिशाचाः) हे मांसभक्षक ! [रोगो वा प्राणियो] (रुद्रः) दुःखनाशक सेनापति ने (वः) तुम्हारे (ग्रीवाः) गले को (अशरैत्) तोड़ डाला है, (यातुधानाः) हे पीड़ादायको ! (वः) तुम्हारी (पृष्टीः) पसलियाँ (अपि) भी (शृणातु) तोड़े। (विश्वतोवीर्या) सब ओर से सामर्थ्यवाली (वीरुत्) विविध प्रकार से प्रकाशित होनेवाली शक्ति [परमेश्वर] ने (वः) तुमको (यमेन) नियम के साथ (सम् अजीगमत्) संयुक्त किया है ॥२॥

    भावार्थ - प्रतापी राजा दुःखदायक शत्रु और रोगों का सदा प्रतीकार करे। उस परमात्मा ने सब के कर्मों को वेद द्वारा नियमबद्ध किया है ॥२॥

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