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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    सूक्त - चातन देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    प्राग्नये॒ वाच॑मीरय वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम्। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्नये॑ । वाच॑म् । ई॒र॒य॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम्। स नः पर्षदति द्विषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अग्नये । वाचम् । ईरय । वृषभाय । क्षितीनाम् । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे विद्वान् !] (क्षितीनाम्) पृथिवी आदि लोकों के बीच (वृषभाय) महाबली (अग्नये) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिये (वाचम्) वाणी (प्र ईरय) अच्छे प्रकार उच्चारण कर, (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) पाले ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर की स्तुतिपूर्वक पुरुषार्थ करके दरिद्रता आदि दुःखों को हटावें ॥१॥

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