अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
यो विश्वा॒भि वि॒पश्य॑ति॒ भुव॑ना॒ सं च॒ पश्य॑ति। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । विश्वा॑ । अ॒भि । वि॒ऽपश्य॑ति । भुव॑ना । सम् । च॒ । पश्य॑ति । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑। द्विष॑: ॥३४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति। स नः पर्षदति द्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । विश्वा । अभि । विऽपश्यति । भुवना । सम् । च । पश्यति । स: । न: । पर्षत् । अति। द्विष: ॥३४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
विषय - शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ -
(यः) जो परमेश्वर (विश्वा) सब (भुवना) भुवनों को (अभि) चारों ओर से (विपश्यति) अलग-अलग देखता है (च) और (सम् पश्यति) मिले हुए देखता है। (सः) वह (द्विषः) वैरियों को (अति) उलाँघ कर (नः) हमें (पर्षत्) भरपूर करे ॥४॥
भावार्थ - परमेश्वर सब लोकों और पदार्थों को व्यस्त और समस्त रूप से देखकर उनकी सुधि रखता है ॥४॥
टिप्पणी -
४−(यः) परमेश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (अभि) सर्वतः (विपश्यति) पृथक् पृथगवलोकयति (भुवना) भुवनानि (च) (सम् पश्यति) संगतानि निरीक्षते ॥