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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 41

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - दैव्या ऋषयः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    मा नो॑ हासिषु॒रृष॑यो॒ दैव्या॒ ये त॑नू॒पा ये न॑स्त॒न्वस्तनू॒जाः। अम॑र्त्या॒ मर्त्यां॑ अ॒भि नः॑ सचध्व॒मायु॑र्धत्त प्रत॒रं जी॒वसे॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । हा॒सि॒षु॒: । ऋष॑य: । दैव्या॑: । ये । त॒नू॒ऽपा: । ये । न॒: । त॒न्व᳡: । त॒नू॒ऽजा: । अम॑र्त्या: । मर्त्या॑न् । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् । आयु॑: । ध॒त्त॒ । प्र॒ऽत॒रम् । जी॒वसे॑ । न॒:॥४१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो हासिषुरृषयो दैव्या ये तनूपा ये नस्तन्वस्तनूजाः। अमर्त्या मर्त्यां अभि नः सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । हासिषु: । ऋषय: । दैव्या: । ये । तनूऽपा: । ये । न: । तन्व: । तनूऽजा: । अमर्त्या: । मर्त्यान् । अभि । न: । सचध्वम् । आयु: । धत्त । प्रऽतरम् । जीवसे । न:॥४१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (दैव्याः) दिव्यगुणवाले (ऋषयः) व्यापनशील वा दर्शनशील [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान दो नथने, दो आँख और मुख] (नः) हमें (मा हासिषुः) न त्यागें, (ये) जो (तनूपाः) शरीर की रक्षा करने हारे और (ये) जो (नः) हमारे (तन्वः) शरीर के (तनूजाः) विस्तार के साथ उत्पन्न हुए हैं। (अमर्त्याः) हे अमर ! [नित्य उत्साहियो] (मर्त्यान्) मरते हुए [निरुत्साही] मनुष्यों के हित करनेवाले (नः) हम से (अभि) सब ओर से (सचध्वम्) मिले रहो, और (नः) हमें (प्रतरम्) अधिक श्रेष्ठ (आयुः) आयु (जीवसे) जीवन के लिये (धत्त) दान करो ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य ब्रह्मचर्य, योगाभ्यास, विद्याप्राप्ति आदि कर्मों से हृष्ट-पुष्ट रह कर संसार का उपकार करके कीर्ति पावें ॥३॥ यह मन्त्र स्वामी दयानन्द कृत “संस्कारविधि, जातकर्म” में आशीर्वाद का है ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

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