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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 43

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - मन्युशमनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मन्युशमन सूक्त

    अ॒यं द॒र्भो विम॑न्युकः॒ स्वाय॒ चार॑णाय च। म॒न्योर्वि॑मन्युकस्या॒यं म॑न्यु॒शम॑न उच्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । द॒र्भ: । विऽम॑न्युक:। स्वाय॑ । च॒ । अर॑णाय । च॒ । म॒न्यो: । विऽम॑न्युकस्य । अ॒यम् । म॒न्यु॒ऽशम॑न: । उ॒च्य॒ते॒ ॥४३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं दर्भो विमन्युकः स्वाय चारणाय च। मन्योर्विमन्युकस्यायं मन्युशमन उच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । दर्भ: । विऽमन्युक:। स्वाय । च । अरणाय । च । मन्यो: । विऽमन्युकस्य । अयम् । मन्युऽशमन: । उच्यते ॥४३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 43; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अयम्) यह (दर्भः) दर्भ अर्थात् दुःख नाश करनेवाला वा सुकर्म गूँथनेवाला पुरुष (स्वाय) अपने समुदाय के लिये (च च) और (अरणाय) प्राप्ति योग्य शूद्र अन्त्यज आदि के लिये (विमन्युकः) क्रोध हटानेवाला है। (अयम्) यह (मन्योः) क्रोधी का (विमन्युकः) क्रोध दूर करनेवाला और (मन्युशमनः) क्रोध शान्त करनेवाला (उच्यते) कहा जाता है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य को योग्य है कि बड़े और छोटों से शान्तचित्त होकर बर्ताव करे ॥१॥ (दर्भ) अर्थात् कुश घास औषधविशेष भी है, जो वात पित्त कफ त्रिदोष आदि रोग नाश करता है ॥

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