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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 43

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - मन्युशमनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मन्युशमन सूक्त

    वि ते॑ हन॒व्यां श॒रणिं॒ वि ते॒ मुख्यां॑ नयामसि। यथा॑व॒शो न वादि॑षो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ते॒ । ह॒न॒व्या᳡म् । श॒रणि॑म् । वि । ते॒ । मुख्या॑म् । न॒या॒म॒सि॒ । यथा॑ । अ॒व॒श: । न ।‍ वादि॑ष: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥४३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ते हनव्यां शरणिं वि ते मुख्यां नयामसि। यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ते । हनव्याम् । शरणिम् । वि । ते । मुख्याम् । नयामसि । यथा । अवश: । न ।‍ वादिष: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥४३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 43; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (हनव्याम्) ठोड़ी में वर्त्तमान और (ते) तेरे (मुख्याम्) मुख पर वर्त्तमान (शरणिम्) हिंसा के चिह्न को (वि वि नयामसि) सर्वथा हम हटाते हैं। (यथा) जिससे (अवशः) परवश (न=न भूत्वा) न होकर (वादिषः) तू बातचीत करे, (मम) मेरे (चित्तम्) चित्त में (उप आयसि) तू पहुँच करता है ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य अपने शरीर के सब अङ्गों से सुचेष्टा करके सबका प्रिय रहे ॥३॥

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