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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
    सूक्त - गार्ग्य देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त

    मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्वच्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः। शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मे॒ष:ऽइ॑व । वै । सम् । च॒ । वि । च॒ । उ॒रु । अ॒च्य॒से॒ । यत् । उ॒त्त॒र॒ऽद्रौ । उप॑र: । च॒ । खाद॑त: । शी॒र्ष्णा: । शिर॑: । अप्स॑सा । अप्स॑: । अ॒र्दय॑न् । अं॒शून् । ब॒भ॒स्ति॒ । हरि॑तेभि: । आ॒सऽभि॑:॥४९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेष इव वै सं च वि चोर्वच्यसे यदुत्तरद्रावुपरश्च खादतः। शीर्ष्णा शिरोऽप्ससाप्सो अर्दयन्नंशून्बभस्ति हरितेभिरासभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेष:ऽइव । वै । सम् । च । वि । च । उरु । अच्यसे । यत् । उत्तरऽद्रौ । उपर: । च । खादत: । शीर्ष्णा: । शिर: । अप्ससा । अप्स: । अर्दयन् । अंशून् । बभस्ति । हरितेभि: । आसऽभि:॥४९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे अग्ने परमात्मन्] (मेषः इव) मेढ़ा के समान तू (वै) निश्चय करके (सम् अच्यसे) सिमट जाता है (च च) और (उरु) बहुत (वि=वि अच्यसे) फैल जाता है, (यत्) जब कि (उत्तरद्रौ) ऊँची शाखा पर (खादतः=खादन्) खाता हुआ तू (च) निश्चय करके (उपरः) ठहरनेवाला होता है। (शीर्ष्णा) शिर से (शिरः) शिर को, और (अप्ससा) रूप से (अप्सः) रूप को (अर्दयन्) दबाते हुए आप (हरितेभिः) हरणशील (आसभिः) गिराने के सामर्थ्यों से (अंशून्) सूर्य आदि लोकों को (बभस्ति) खा जाते हैं ॥२॥

    भावार्थ - जैसे भेड़ बकरी सिमट कर और फैल कर पेड़ों की पत्ती खा जाती हैं, वैसे ही परमात्मा सृष्टि और प्रलय करके सब से ऊपर विराजमान रहता है। वही सब पदार्थों को आपस में टकराकर परमाणुओं की अवस्था में करता है ॥२॥

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