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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 75

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
    सूक्त - कबन्ध देवता - इन्द्रः छन्दः - षट्पदा जगती सूक्तम् - सपत्नक्षयण सूक्त

    एतु॑ ति॒स्रः प॑रा॒वत॒ एतु॒ पञ्च॒ जनाँ॒ अति॑। एतु॑ ति॒स्रोऽति॑ रोच॒ना यतो॒ न पुन॒राय॑ति। श॑श्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यो॒ याव॒त्सूर्यो॒ अस॑द्दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एतु॑ । ति॒स्र: । प॒रा॒ऽवत॑: । एतु॑ । पञ्च॑ । जना॑न् । अति॑ । एतु॑ । ति॒स्र: । अति॑ । रो॒च॒ना । यत॑: । न । पुन॑: । आ॒ऽअय॑ति । श॒श्व॒तीभ्य॑: । समा॑भ्य: । याव॑त् । सूर्य॑: । अस॑त् । दि॒वि ॥७५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतु तिस्रः परावत एतु पञ्च जनाँ अति। एतु तिस्रोऽति रोचना यतो न पुनरायति। शश्वतीभ्यः समाभ्यो यावत्सूर्यो असद्दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतु । तिस्र: । पराऽवत: । एतु । पञ्च । जनान् । अति । एतु । तिस्र: । अति । रोचना । यत: । न । पुन: । आऽअयति । शश्वतीभ्य: । समाभ्य: । यावत् । सूर्य: । असत् । दिवि ॥७५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    जो पुरुष (तिस्रः) तीन [अपने मानुष स्थान, नाम और जाति रूप] (परावतः) उत्कृष्ट भूमियों [वा धामों] को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर (एतु) चले, और (पञ्च जनान्) पाँच [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों वर्ण, और पाचवें नीच योनि, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि] प्राणियों [की मर्यादा] को [उलाँघकर] (एतु) चले। वह पुरुष (तिस्रः रोचनाः) तीन [जीव, प्रकृति और परमेश्वर की] रुचि योग्य विद्याओं को [अथवा, सूर्य, चन्द्र और अग्नि के] प्रकाशों को (अति=अतीत्य) उलाँघ कर [वहाँ] (एतु) चला जावे, (यतः) जहाँ से वह (शश्वतीभ्यः समाभ्यः) बहुत बरसों तक (पुनः) फिर (न)(आयति) आवे, (यावत्) जब तक (सूर्यः) सूर्य (दिवि) अन्तरिक्ष में (असत्) रहे ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य मानुषी मर्यादा को छोड़ कर महाघोर पातक करते हैं, उनकी तामसी वृत्ति हो जाती है, और वे जन्म-जन्मान्तरों तक सदा दुःखसागर में डूबे रहते हैं ॥३॥ इस मन्त्र का मिलान करो−ऋग्वेद २।२७।८, ९ ॥ पदपाठ में (रोचना) पद के स्थान पर सायणभाष्य के अनुसार (रोचनाः) ऐसा पद हमने माना है ॥

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