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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
    सूक्त - कबन्ध देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त

    अस्था॒द् द्यौरस्था॑त्पृथि॒व्यस्था॒द्विश्व॑मि॒दं जग॑त्। आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थु॒ स्थाम्न्यश्वाँ॑ अतिष्ठिपम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्था॑त् । द्यौ: । अस्था॑त् । पृ॒थि॒वी । अस्था॑त् । विश्व॑म् । इ॒दम् । जग॑त् । आ॒ऽस्थाने॑ । पर्व॑ता: । अ॒स्थु॒: । स्थाम्नि॑ । अश्वा॑न् । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् ॥७७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्थाद् द्यौरस्थात्पृथिव्यस्थाद्विश्वमिदं जगत्। आस्थाने पर्वता अस्थु स्थाम्न्यश्वाँ अतिष्ठिपम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्थात् । द्यौ: । अस्थात् । पृथिवी । अस्थात् । विश्वम् । इदम् । जगत् । आऽस्थाने । पर्वता: । अस्थु: । स्थाम्नि । अश्वान् । अतिष्ठिपम् ॥७७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 77; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (द्यौः) सूर्य लोक (अस्थात्) ठहरा हुआ है, (पृथिवी) पृथिवी (अस्थात्) ठहरी हुई है, (इदम्) यह (विश्वम्) सब (जगत्) जगत् (अस्थात्) ठहरा हुआ है। (पर्वताः) सब पर्वत (आस्थाने) विश्रामस्थान में (अस्थु) ठहरे हुए हैं। (अश्वान्) घोड़ों को (स्थाम्नि) स्थान पर (अतिष्ठिपम्) मैंने खड़ा कर दिया है ॥१॥

    भावार्थ - जैसे मनुष्य घोड़े आदि पशुओं को रसरी से बाँधता है, वैसे ही सूर्य आदि लोक परमेश्वरनियम से परस्पर आकर्षण द्वारा स्थित हैं, वैसे ही मनुष्यों को धार्मिक कर्मों के लिये सदा कटिबद्ध रहना चाहिये ॥१॥

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